
वैश्विक उष्णता (global warming) क्या है?
वैश्विक उष्णता (global warming)-
पृथ्वी तथा वायुमण्डल सूर्य से सतत रूप ऊष्मा प्राप्त करते रहते हैं, तथापि उनका ऊष्मा भण्डार न तो सामान्य से अधिक हो पाता है न ही कम। इससे ज्ञात होता है कि पृथ्वी एवं वायुमण्डल के ऊष्मा भण्डार में सदैव सन्तुलन की स्थिति बनी रहती है, अर्थात् वे जितनी ऊष्मा सूर्य से प्राप्त करते हैं; उतनी ही मात्रा का बाद में विकिरण कर देते हैं।
वर्तमान में आधुनिक प्रौद्योगिकी के बढ़ते प्रयोग से जीवाश्मीय ईंधनों के उपयो में वृद्धि हुई है जिससे उत्सर्जित गैसें; जैसे- कार्बन डाइ-ऑक्साइड, मेथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रो-फ्लुओरो कार्बन, सल्फर हेक्सा फ्लुओराइड, डाइ-फ्लुओरो मेथिल, सल्फर पेण्टा-फ्लुओराइड की मात्रा वायुमण्डल में बढ़ गई है।
ये गैसें पृथ्वी से बाहर जाने वाले ऊष्मा विकिरण, जो दीर्घ तरंगीय अवरक्त किरणों (long wave infra-red rays) के रूप में होता है, को अवशोषित कर लेती हैं; अत: इन गैसों को ऊष्मारोधी गैसें कहा जाता है; फलस्वरूप इनसे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो जाती है जिसे वैश्विक उष्णता या ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। इस प्रकार समस्त पृथ्वी के वातावरण में कृत्रिम गैसीय रिसाव के कारण प्रतिवर्ष तापमान में हो रही वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग की संज्ञा दी गई है।
वैश्विक उष्णता के कारण –
- कृत्रिम गैसों में वृद्धि – विश्वव्यापी ताप वृद्धि का प्रमुख कारण कार्बन डाइ-ऑक्साइड गैस है, जिसे ‘ग्रीन हाउस गैस’ कहा जाता है। मेथेन एवं नाइट्रस ऑक्साइड भी इसी प्रकार की गैसें हैं। ये सभी गैसें पर्यावरण की ऊष्मा सोख लेती हैं और ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ उत्पन्न करती हैं।’ ग्रीन हाउस गैस’ पृथ्वी पर आ रही सूर्य की किरणों के प्रति तो पारदर्शी होती हैं, परन्तु पृथ्वी के परावर्तित ‘इन्फ्रारेड रेडिएशन’ को अवशोषित कर लेती हैं। इस प्रकार पृथ्वी एवं वायुमण्डल के तापमान में वृद्धि कर देती हैं।
- वाहनों के संचालन से प्राप्त अवशिष्ट पदार्थ – वाहनों के संचालन से नि:सृत गैसें एवं अवशिष्ट पदार्थ तथा अन्य स्थानों पर जलने वाला ईंधन कार्बन डाइ-ऑक्साइड एवं नाइट्रस ऑक्साइड का मानवजनित सबसे प्रमुख स्रोत है जबकि कार्बन अवशिष्ट का, उत्क्रमण मेथेन का मुख्य स्रोत है। इन स्रोतों से वैश्विक उष्णता में वृद्धि होती है।
- क्लोरो-फ्लुओरो कार्बन की वृद्धि – ग्लोबल वार्मिंग के लिए क्लोरो – फ्लुओरो कार्बन भी सहायक है। इसका निर्माण अमेरिका में सन् 1930-31 में आरम्भ हुआ। ज्वलनशील रसायन के रूप में निकलना एवं अविषाक्त होने के कारण औद्योगिक रूप में इसकी पहचान आदर्श प्रशीतक रूप में की जाती है। क्लोरो-फ्लुओरो कार्बन का प्रयोग रेफ्रिजरेटर (फ्रिज), इलेक्ट्रॉनिक, प्लास्टिक, औषध उद्योग एवं एरोसोल आदि में होता है। ओजोन से रासायनिक क्रिया कर यह क्लोरीन के अणुओं को तोड़ती है तथा सूर्य की पराबैंगनी किरणों को धरातल तक भेजने में सक्षम होती है। अत्यधिक गर्म पराबैंगनी किरणें धरातल तापमान में वृद्धि करने में सहायक हुई हैं।
- औद्योगिक क्रान्ति का प्रभाव – औद्योगीकरण में तीव्रता लाने के लिए भारी मात्रा में ऊर्जा संसाधनों कोयला, खनिज तेल एवं प्राकृतिक गैस का उपयोग किया गया जिससे कार्बन डाइ-ऑक्साइड, क्लोरोफ्लुओरो कार्बन, मेथेन और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों के जमाव पर्यावरण में होते रहे। निर्वनीकरण के लिए वृक्षों के जलाने से भी इन गैसों में वृद्धि हुई जिससे वातावरण के तापमान में वृद्धि होती गई।
वैश्विक उष्णता का प्रभाव-
अधिकांश मौसम–विज्ञानियों का मत है कि 19 वीं शताब्दी से ही पृथ्वी का औसत तापमान 0.5° सेल्सियस बढ़ रहा है । यदि यही स्थिति बनी रही तो अगले 50-60 वर्षों के भीतर पृथ्वी का तापमान 4°C से 5°C तक बढ़ सकता है। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर 1990 का दशक 20 वीं शताब्दी का सबसे गर्म दशक रहा तथा इसका दुष्परिणाम ‘एलनीनो’ के रूप में सामने आया है।
यदि तापमान बढ़ने की यही गति रही तो पृथ्वी का पर्यावरण अस्त-व्यस्त हो जाएगा। वैश्विक उष्णता में ध्रुवीय हिमखण्ड पिघल जाएँगे जिससे विश्वभर में समुद्री जल-स्तर में वृद्धि हो जाएगी । विश्व स्तर पर इसका दुष्परिणाम वनों, कृषि आदि के विनाश के रूप में झेलना पड़ेगा। वास्तव में, वैश्विक उष्णता का प्रमुख कारण ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ ही है।
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प्रश्न ओर उत्तर (FAQ)
वैश्विक उष्णता (global warming) किसे कहते हैं?
पृथ्वी तथा वायुमण्डल सूर्य से सतत रूप ऊष्मा प्राप्त करते रहते हैं, तथापि उनका ऊष्मा भण्डार न तो सामान्य से अधिक हो पाता है न ही कम। इससे ज्ञात होता है कि पृथ्वी एवं वायुमण्डल के ऊष्मा भण्डार में सदैव सन्तुलन की स्थिति बनी रहती है, अर्थात् वे जितनी ऊष्मा सूर्य से प्राप्त करते हैं; उतनी ही मात्रा का बाद में विकिरण कर देते हैं।
वैश्विक उष्णता का पृथ्वी पर क्या प्रभाव पड़ा।
अधिकांश मौसम–विज्ञानियों का मत है कि 19 वीं शताब्दी से ही पृथ्वी का औसत तापमान 0.5° सेल्सियस बढ़ रहा है । यदि यही स्थिति बनी रही तो अगले 50-60 वर्षों के भीतर पृथ्वी का तापमान 4°C से 5°C तक बढ़ सकता है।
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