जीव प्रकाशसंश्लेषण तथा श्वसन में जनित वर्ज्य गैसों से कैसे छुटकारा पाते हैं। अन्य उपापचयी क्रियाओं में जनित नाइट्रोजन युक्त पदार्थों का निकलना आवश्यक है। वह जैव प्रक्रम जिसमे इन हानिकारक उपापचयी कर्ज्य पदार्थों का निष्कासन होता है उत्सर्जन कहलाता है।
विभिन्न जंतु इसके लिए विविध युक्तियाँ करते हैं। बहुत से एककोशिक जीव इन अपशिष्टों को शरीर की सतह से जल में विसरित कर देते हैं। जैसा हम अन्य प्रक्रम में देख चुके हैं जटिल बहुकोशिकीय जीव इस कार्य को पूरा करने के लिए विशिष्ट अगों का उपयोग करते हैं।
मानव में उत्सर्जन | Manav mein utsarjan
मानव के उत्सर्जन तंत्र में एक जोड़ा वृक्क एक मूत्रवाहिनी एक मूत्राशय तथा एक मूत्रमार्ग होता है। वृक्क उदर में रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर स्थित होते हैं। वृक्क में मूत्र बनने के बाद मूत्रवाहिनी में होता हुआ मूत्राशय में आ जाता है तथा यहाँ तब तक एकत्र रहता है जब तक मूत्रमार्ग से यह निकल नहीं जाता है।

मूत्र किस प्रकार तैयार होता है? मूत्र बनने का उद्देश्य रुधिर में से वर्ज्य पदार्थों को छानकर बाहर करना है। फुफ्फुस में CO2 रुधिर से अलग हो जाती है जबकि नाइट्रोजनी वयं पदार्थ जैसे यूरिया या यूरिक अम्ल वृक्क (uric acid kidney) में रुधिर से अलग कर लिए जाते हैं।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि वृक्क में आधारी निस्पंदन एकक फुफ्फुस की तरह हो बहुत पतली भित्ति वाली रुधिर केशिकाओं का गुच्छ होता है। वृक्क में प्रत्येक केशिका गुच्छ एक नलिका के कप के आकार के सिरे के अंदर होता है।
यह नलिका छने हुए मूत्र को एकत्र करती है प्रत्येक वृक्क में ऐसे अनेक निस्यंदन एकक होते हैं जिन्हें वृक्काणु (नेफ्रॉन) कहते हैं जो आपस में निकटता से पैक रहते हैं। प्रारंभिक नियों में कुछ पदार्थ, जैसे ग्लूकोज, अमीनो अस्त, लवण और प्रचुर मात्रा में जल रह जाते हैं। जैसे-जैसे मूत्र इस नलिका में प्रवाहित होता है इन पदार्थों का चयनित पुनरवशोषण हो जाता है।
जल की मात्रा पुनरवशोषण (reabsorption) शरीर में उपलब्ध अतिरिक्त जल की मात्रा पर तथा कितना विलेय वर्ज्य उत्सर्जित करना है, पर निर्भर करता है। प्रत्येक वृक्क में बनने वाला मूत्र एक लंबी नलिका, सूत्रवाहिनी में प्रवेश करता है जो वृक्क को मूत्राशय से जोड़ती है।
सूत्राशय में मूत्र भंडारित रहता है जब तक कि फैले हुए मुत्राशय का दाव मूत्रमार्ग द्वारा उसे बाहर न कर दे। मूत्राशय पेशीय होता है अत: यह तंत्रिका नियंत्रण में है, इसकी चर्चा हम कर चुके हैं। परिणामस्वरूप हम प्रायः मूत्र निकासी को नियंत्रित कर लेते हैं।
अपोहन (dialysi)
कृत्रिम वृक्क (अपोहन) उत्तरजीविता के लिए वृक्क जैव अंग है। कई कारक जैसे संक्रमण आघात या वृक्क में सीमित रुधिर प्रवाह वृक्क की क्रियाशीलता को कम कर देते हैं। यह शरीर में विषैले अपशिष्ट को संचित कराता है, जिससे मृत्यु भी हो सकती है। वृक्क के अपक्रिय होने की अवस्था में कृत्रिम वृक्क का उपयोग किया जा सकता है।
एक कृत्रिम वृक्क नाइट्रोजनी अपशिष्ट उत्पादों को रुधिर से अपोहन (dialysis) द्वारा निकालने की एक युक्ति है। कृत्रिम वृक्क बहुत सी अर्धपारगम्य आस्तर वालो नलिकाओं से युक्त होती है। ये नलिकाएँ अपोहन द्रव से भरी टकी में लगी होती हैं। इस द्रव का परासरण दाब रुधिर जैसा ही होता है।
लेकिन इसमें नाइट्रोजनी अपशिष्ट नहीं होते हैं रोगी के रुधिर को इन नलिकाओं से प्रवाहित कराते हैं। इस मार्ग में रुधिर से अपशिष्ट उत्पाद विसरण द्वारा अपोहन द्रव में आ जाते हैं। शुद्धिकृत रुधिर वापस रोगी के शरीर में पंपित कर दिया जाता है। यह वृक्क के कार्य के समान है।
लेकिन एक अंतर है कि इसमें कोई पुनरवशोषण नहीं है। प्रायः एक स्वस्थ वयस्क में प्रतिदिन 180 लिटर आरंभिक निस्यद वृक्क में होता है। यद्यपि एक दिन में उत्सर्जित मूत्र का आयतन वास्तव में एक या दो लिटर है क्योंकि शेष निस्पंद वृक्क नलिकाओं में पुनरवशोषित हो जाता है।