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परागकों को पुरस्कार | बीजाण्ड अथवा गुरुबीजाणुधानी

नमस्कार दोस्तों आज के इस लेख में आपका स्वागत है उम्मीद करता हूँ कि आप सब स्वस्थ होंगे, आज के इस लेख में हम आपको परागकों का पुरस्कार तथा बीजांड के बारे में बताएँगे तो चलिए शुरू करते हैं।

मकरन्द (Nectar)

मकरन्द में सामान्यतः शर्करा जैसे-ग्लूकोस, सुकरोस, फ्रक्टोस, पानी तथा प्रोटीन, अमीनो अम्ल, लिपिड, एल्कलाइड, एन्टीऑक्सीडेन्ट, डेक्सट्रिन, सेपोनिन, कार्बनिक अम्ल आदि मिलते हैं। शर्करा की मात्रा 5-80 प्रतिशत होती है। परागकों के समिष्ट संरचना में मकरन्द का पुरस्कार महत्वपूर्ण भूमिका रखता है।

मकरन्द की मात्रा परागकों द्वारा तय की गई दूरी को प्रभावित करता है। परागक एक पौधे के कितने फूलों पर तथा कितने पौधों पर घूम सकता है यह भी इसी पर निर्भर करता है। मकरन्द के लिए प्रतियोगिता भी एक महत्वपूर्ण कारण है। बहुत-सी विशिष्ट मक्खियाँ ही विशिष्ट पुष्पों पर जा सकती हैं।

उदाहरण के लिए यदि मधुमक्खी (Apis meltifera) एगेव स्केटिआई (Agave schateie) के मकरन्दयुक्त पुष्पों पर छोड़ दिया जाए वहाँ का निवासी हम्बल मक्खियों (Bombus sonorus) तथा बधई मक्खियों (Xylocopa arizonensis) के लिए मकरन्द उपलब्ध नहीं हो जाएगा। मकरन्द ग्रन्थियाँ पुष्पी व अतिरिक्त पुष्पी हो सकती है।

अतिरिक्त पुष्पी ग्रन्थियाँ जीवन पर्यन्त कीट को आकर्षित करती हैं परन्तु पुष्पी मकरन्द ग्रन्थियाँ छोटे से समय के लिए ऐसा करती हैं। पुष्पी मकरन्द ग्रन्थियाँ सामान्यतः छुपी हुई होती हैं। पुष्पी मकरन्द ग्रन्थियों में मकरन्द का उत्पादन अलग-अलग पौधे में अलग-अलग मात्रा व समय में होता है।

परागक की क्रिया के आधार पर मकरन्द का निर्माण होता है। रात्रि पुष्पों में मकरन्द स्रवण का समय शाम को होता है जो आधी रात के पश्चात् बन्द हो जाता है। उष्ण प्रदेशों में अधिकांश तितली परागित पौधों में पुष्पन वर्षा ऋतु में होता है, जैसे जुलाई-सितम्बर तक तथा इसी समय में अधिकतम मकरन्द उत्पादन होता है। मकरन्द की मात्रा परागकों की संख्या पर निर्भर होती है।

परागकण (Pollen grain)

बीटल, मक्खी, चमगादड़ आदि पराणकणों को खाते हैं। इसे पोलीनीवोरी (pollinivory) कहते हैं। जो परागकण शेष रह जाते हैं। वह इन परागकों के द्वारा वर्तिकाग्र तक पहुँचा दिए जाते हैं। अन्यथा ये पौधे वायु, वर्षा आदि पर परागण के लिए निर्भर रहते हैं।

परागण सहभागिता (Pollination mutualism) की स्थिति में पौधों को कुछ परागकणों का त्याग परागकों को पोषक के रूप में करना पड़ता है जिससे परागक आए और परागण हो सके।

ऊष्मा (Heat)

कुछ पुष्पों से ऊष्मा निकलती है उन्हें थर्मोजेनिक (thermogenic) पुष्प कहते हैं। इन पुष्पों में उच्च परन्तु स्थिर अन्तः ताप बना रहता है। जबकि बाह्य वातावरण में तापमान परिवर्तित होता रहता है। एरेसी, नीलम्बोनेसी, एनोनेसी, एरिकेसी, केलीकेन्थेसी व एरिस्टोलोकिएसी के कई पुष्प थर्मोजेनिक कहते हैं। पुष्प सामान्यत: बड़े होते हैं तथा ऊष्मा को समायोजित कर पुष्प का ताप बढ़ाने में सक्षम होते हैं।

एन्टीबायोटिक युक्त पदार्थ

क्लूसिया ग्रान्डिफ्लोरा अपने परागक जंगली ट्राइगोना मक्खी को विशेष प्रकार का पुरस्कार देता है। एक ऐसा रेसिन जिस पर एन्टीबायोटिक की पर्त होती है। यह रेसिन मक्खी के छत्ते के हानिकारक जीवाणुओं से मुक्त रखता है। मादा पादपों से प्राप्त रेसिन अधिक प्रभावशाली होती है। नर पादप से प्राप्त रेसिन असरदार नहीं होती है।

बीजाण्ड अथवा गुरुबीजाणुधानी (OVULE OR MEGASPORANGIUM)

प्रत्येक बीजाण्ड (ovule), बीजाण्डासन (placenta) के साथ एक डंठल अथवा बीजाण्डवृन्त (funicle) से जुड़ा रहता है। इस स्थान को जिस पर बीजाण्ड, बीजाण्डवृन्त से जुड़ता है नाभिका (hilum) कहते हैं। बीजाण्डकाय (nucellus) प्राय: दो आवरणों से घिरा होता है। जिन्हें अध्यावरण (integuments) कहते हैं। अध्यावरणों के मिलने के स्थान पर जगह रह जाती है जिसे बीजाण्डद्वार (micropyle) कहते हैं।

बीजाण्ड
बीजाण्ड

बीजाण्डकाय (nucellus ) आधार जहाँ से का अध्यावरण (integuments) निकलते हैं, निभाग (chalaza) कहलाता है। परिपक्व बीजाण्ड में बीजाण्डद्वार की ओर एक बड़ी कोशिका दिखाई देती है। इसे भ्रूणकोष (embryo sac) कहते हैं। भ्रूण का निर्माण इसमें ही होता है। यह बीजाण्ड का सबसे महत्वपूर्ण भाग है।

अध्यावरण (integuments)
अध्यावरण (integuments)

कभी-कभी बाह्य अध्यावरण अतिरिक्त वृद्धि कर जाता है। कुछ पौधों में यह केवल बीजाण्डद्वार तक सीमित होता है जिसे केरन्कल (caruncle) कहते हैं; जैसे यूफोरबिएसी कुल के पौधों में तथा कुछ पौधों में यह वृद्धि अत्यधिक होकर पूरे आवरण को ही घेर लेती है जिसे एरिल (aril) कहते हैं; जैसे लीची (Litchi)।

अध्यावरण की संख्या के अनुसार बीजाण्ड तीन प्रकार के हो सकते हैं-

  1. द्विअध्यावरणी (Bitegmic)– इसमें बाह्य तथा अन्त: अध्यावरण (outer and inner integuments) दोनों ही मिलते हैं; जैसे पोलीपेटली वर्ग तथा एकबीजपत्री पौधे।
  2. एक अध्यावरणी (Unitegmic)– इसमें केवल एक अध्यावरण मिलता है; जैसे गेमोपेटली वर्ग के पौधे।
  3. अध्यावरणहीन (Ategmic)- बीजाण्ड पर एक भी अध्यावरण नहीं होता है। ऐसे बीजाण्ड प्राय: बीजाण्डासन में धँसे रहते हैं: जैसे चन्दन ( Santalum )।

बीजाण्ड के प्रकार (Types of Ovules)

बीजाण्ड (ovule) के बीजाण्डासन (placenta) पर बीजाण्डवृन्त (funicle) से विभिन्न प्रकार से जुड़े रहने के आधार पर बीजाण्डद्वार (micropyle) तथा निभाग (chalaza) से बीजाण्डवृन्त (funicle) की परस्पर स्थिति बदलती है। इसके अनुसार प्रायः बीजाण्ड छः प्रकार के होते हैं :

आर्थोट्रोपस अथवा एट्रोपस (Orthotropous or Atropous): इसमें बीजाण्डद्वार, निभाग एवं बीजाण्डवृन्त एक ही सीध में पाए जाते हैं; जैसे पाइपरेसीअरटीकेसी कुल के पौधे |

ऐनाट्रोपस (Anatropous): इस प्रकार के बीजाण्ड इस तरह से उल्टे होते हैं कि बीजाण्डद्वार व बीजाण्डवृन्त समानान्तर हो जाते हैं। बीजाण्डद्वार व निभाग एक सीध में होते हैं; जैसे अधिकतर एकबीजपत्रीगेमोपेटली कुल के पौधों में।

बीजाण्ड के प्रकार
बीजाण्ड के प्रकार

हेमीएनाट्रोपस (Hemianatropous): इस प्रकार के बीजाण्ड में बीजाण्डवृन्त व बीजाण्डद्वार में 90° का मुड़ाव पाया जाता है तथा बीजाण्डद्वार एवं निभाग एक ही सीध में होते हैं; जैसे रेननकुलस (Ranunculus) |

कम्पाइलोट्रोपस (Campylotropous): इसमें बीजाण्ड का मुख्य हिस्सा इस प्रकार से मुड़ता है कि बीजाण्ड व निभाग एक सीध में नहीं रहते हैं, परन्तु भ्रूणकोष (embryo sac) सीधा (straight) होता है; जैसे लेग्यूमिनोसी कुल के पौधे।

एम्फीट्रोपस (Amphitropous): इसमें बीजाण्ड इस प्रकार से मुड़ा होता है कि इसका भ्रूणकोष भी मुड़ जाता है। तथा घोड़े की नाल के आकार (horse shoe shaped) का हो जाता है। इस प्रकार के बीजाण्ड ऐलिस्मेसी कुल के पौधों में मिलते हैं ।

सिरसिनोट्रोपस (Circinotropous): इस प्रकार के बीजाण्ड का बीजाण्डवृन्त (funicle) वृद्धि करता रहता है और 180° से 360° तक घूम जाता है। इस वजह से बीजाण्डवृन्त बीजाण्ड को ऐसे घेरता है कि एक तीसरा अध्यावरण-सा प्रतीत होता है। जैसे ओपेन्शियेसी कुल के पौधे।

गुरुबीजाणु जनन (MEGASPOROGENESIS)

प्रत्येक बीजाण्डकाय (nucellus) में प्राय: एक कोशिका गुरुबीजाणु मातृ कोशिका (megaspore mother cell) के रूप में कार्य करती है। यह कोशिका द्विगुणित (diploid) होती है तथा अर्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप इसमें चार गुरुबीजाणु (megaspore) बनते हैं जो अगुणित (haploid) होते हैं।

गुरुबीजाणु जनन
गुरुबीजाणु जनन

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