नमस्कार दोस्तों स्वागत है आज के इस नए लेख में। आज के इस लेख में हम आपको बताएँगे कि परागक का आकर्षण क्या होता है? इसके बारे में बहुत ही गहन चर्चा होने वाली है तो चालिए शुरू करते हैं।
सामान्यतः परपरागण के लिए पुष्पों को किसी न किसी पर निर्भर होना पड़ता है। क्योंकि फूल एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं पहुंच सकते हैं और परागण की क्रिया के लिए परागकणों का एक पुष्प से दूसरे पुष्प के वर्तिकाम तक पहुँचना पड़ता है। परागण के लिए वायु, जल, कीट, पक्षी आदि की आवश्यकता होती है।
विभिन्न प्रकार के परागण के अनुरूप ही पुष्प की बनावर होती है। परागकण तथा पुष्प के रंग आकार आदि विशेष होते हैं। उदाहरण के लिए खुले स्थान पर तथा खिले फूलों में (घास के मैदानों में) जहाँ परागकण बहुत छोटे, अधिक व हल्के होते हैं परागण वायु द्वारा (वायु परागण) होते हैं।
कुछ पुष्प जिनके परागकण चिपचिपे तथा बड़े होते हैं कीट परागण को महत्व देते हैं तथा पानी द्वारा परागण केवल जलीय जातियों में सम्भव है।
पादप विकल्पी पर परागण कर्ता होते हैं जैसे एस्टरेसी कुल के पादप जिनमें सामान्यतः कीट परागण होता है परन्तु यदि कोर परागण किसी वजह से सफल न हो तो स्व परागण (self pollination) भी मिल सकता है।
कभी-कभी वातावरणीय बदलाव की स्थिति में बहुत-से पौधों में परपरागण (cross pollination) के स्थान पर स्व परागण मिलता है, जैसे फेबेसी, ओनाग्रेसी, एस्टरेसी व पोएसी कुल के पौधे लिम्नेन्थस (Limnanthes) एक बड़ा पंच भागी पुष्प है जिसमें परपरागण होता है परन्तु इसी वंश की कुछ जातियों तथा फ्लोर्किया (Floerkea) आदि के पुष्प छोटे होते हैं तथा त्रिभागी होते हैं जहाँ स्वरागण मिलता है।
फ्लोर्किया का विकास लिम्नेन्थस के रिडक्शन से माना जाता है जिससे पर-परागण वाली जातियों में स्वपरागण पाया जाता है। एमेन्टीफेरी समूह के पौधों को प्राक् आवृतबीजी (primitive angiosperm) माना जाता है तथा इनमें वायु परागण मिलता है। वायु परागण को छोटे व समानीत पुष्पों से जोड़ा जाता है।
ऐसा माना जाता है कि वायु परागण तथा कीट परागण के मध्य एकदिशीय परिवर्तन पाया जाता है। बहुत से ऐसे पौधे हैं जिनमें पहले वायु परागण मिलता था परन्तु अब कीट-परागण मिलता है, जैसे ओलाइरा (Olyra) तथा पेराइना (Pariana) पोएसी कुल के, मोरस (Morus), फाइकस (Ficus) तथा ब्रोसोनेशिय (Broussonetia) आदि मोरेसी कुल से।
प्राक् आवृतबीजीयों में कीट परागण बीटल (Beetle) द्वारा होता था जिसे केन्थेरोफिली (cantharophily) कहते हैं। इसे ये कीट पेरिएन्थ व पुंकेसर को काटते थे। इस प्रकार का परागण मेग्नोलिएसी, निम्फिएसी, केलीकेन्थेसी आदि कुलों में मिलता है जिनमें मकरन्द नाममात्र का पाया जाता है।
विकास के दौरान आवृतबीजीयों के विभिन्न समूहों में मकरन्द ग्रन्थिया विकसित हुई। बीटल परमियन (permian period) समय में मिलते हैं तथा आवृतबीजीयों का विकास क्रिटेशियस (cretaceous) में हुआ।
अत: इस प्रकार के विकास से यह अनुमान लगाया जाता है कि सर्वप्रथम मिलने वाले आवृतबीजी कीट परागित (entomophilous) नहीं थे वरन् केन्थेरोफिलस (cantherophilous) थे।
बीटल के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के कीट, जैसे वास्प, मधुमक्खी, तितली आदि का विकास जुरासिक (Jurassic) पीरियड में हुआ और इसी प्रकार बाद में विकसित होने वाले आवृतबीजी के पुष्प उसी के प्रकार के कीटों के अनुरूप ढले।
प्राक् पुष्पों (primitive flower) में बहुत से पुंकेसर, स्त्रीकेसर आदि मिलते हैं जबकि विकसित पुष्प में सभी पुष्प के अंग निश्चित संख्या अथवा कम संख्या में मिलते हैं।
पुष्प संयुक्त दली तथा जाइगोमार्फिक (zygomorphic) होते हैं, जैसे एकेन्थेसी, स्क्रोफुलेरिएसी, लेमीएसी, आर्किडेसी आदि कुल के सदस्य। वायु परागण सामान्यत: उन पुष्पों में मिलता है जहा परिदल पुंज का अभाव होता है अथवा पुंकेसर बाहर निकले रहते हैं परागकण संख्या में अधिक व हल्के होते हैं।
विशेष प्रकार के परागण के लिए पुष्प अति विशेष होते हैं जैसे कुछ पुष्पों में पक्षी द्वारा परागण होता है। ये पुष्प सामान्यतः बड़े पेड़ों पर अथवा बहुत ऊँचाई पर मिलते हैं जहाँ सामान्यतः कीट नहीं पहुँचता है, जैसे- एगेव में परागण humming bird द्वारा होता है।
कुछ अन्य पुष्पों में मिलने वाला मकरन्द दल की नली के भीतर की ओर मिलता है तथा इसकी गन्ध तीव्र होती है। पुष्प सामान्यतः ढके होते हैं ऐसे पुष्पों में परागण केवल चमगादड़ (bats) द्वारा होता है इसे कीरेप्टेरोफिली (chiropterophilly) कहते हैं, जैसे—सीबा (Cieba), काइगेलिया (Kigelia) तथा पर्किया (Perkia) आदि।
कीट परागित पुष्पों की कुछ विशेषताएँ होती हैं, जैसे बड़े अथवा खूबसूरत पुष्प, मधुर गन्ध, मकरन्द, खाने लायक रस, कीट के बैठने लायक स्थान, वायु से बचाव तथा खाने लायक परागकण आदि।
इनके कारण पुष्प की बनावट आदि में इस प्रकार से विकास होता है कि विशेष कीट की इसकी ओर आकर्षित हो सकते हैं तथा परागण की क्रिया होगी। पुष्प का रंग बहुत महत्वपूर्ण होता है।
पुष्प केवल दलपुंज से ही रंगीन नहीं होता है, बाह्यदल पुंज भी कभी-कभी रंगीन होते हैं। कुछ पुष्पों में जहाँ दलपुंज तथा बाह्यदल पुंज समानीत होते हैं पुतन्तु बड़े तथा रंगीन हो जाते हैं।
कीट अलग-अलग रंगों की ओर आकर्षित होते हैं, जैसे मक्खी (Bees) नीले पुष्प, तितली (butterflies) लाल पुष्प, होवर मक्खी (Hover flies) पीले पुष्प; तथा केरिओन मक्खी (Carrion flies) भूरे व बैंगनी पुष्प की ओर आकृष्ट होती है।
मुलर के अनुसार
कीट का एक गुण होता है कि वे नीचे से ऊपर को चलते हैं अतः किसी पुष्पक्रम में एक दिशीय पुष्प हो तो परागण सभी पुष्पों में समान रूप से होता है, जैसे–फाक्सग्लोव (Digitalis purpurea) में जहाँ स्पाइक में सभी पुष्प एक ओर होते हैं।
जबकि ऐसे पुष्पक्रमों में जिनमें पुष्प अरीय सममित (radial symmetry) क्रम में लगे रहते हैं सभी पुष्पों में परागण एक समान नहीं होता है।
रंग के अतिरिक्त कुछ पुष्प अति गन्धी परन्तु रंगहीन होत हैं वे भी कीट परागित हो सकते हैं, जैसे कुछ पुष्प जो सफेद होते हैं दिन में गन्धहीन होते हैं परन्तु रात में तेज सुगन्ध फैलाते हैं (रात की रानी Cestrum nocturnum) पर रात को उड़ने वाले कीट ही कीट परागण करते हैं।
चाहे ये फूल छिपे हुए क्यों न हो इनकी विशेष गन्ध के अनुरूप कीट पहुँच जाते हैं। कुछ विशेष पुष्पों में मकरन्द नहीं मिलता है परन्तु फिर भी उनसे मधुर गन्ध मिलती है जिसकी ओर कीट आकर्षित होते हैं। ऐसे पुष्पों का रस खाने लायक होता है।
कीट ऐसे पुष्पों के ऊतक से रस चूसते हैं, जैसे— हायसिन्थस ओरिएन्टेलिस (Hyacinthus orientalis) । ट्रॉडिसकेन्शिया (Tradescantia) में रसदार (succulent) रोम मिलते हैं जो कीट को आकर्षित करते है।
पुष्प का आकार भी विशेष प्रकार के कीट की बनावट का आधार है, जैसे नलिका (tube) की लम्बाई के अनुसार की कीट का शुण्ड (probosis) होना चाहिए।
स्वपरागण के दो लाभ बताइए ?
निषेचन अवश्य होता है क्योंकि पुंकेसर व स्त्रीकेसर दोनों एक ही समय पर परिपक्व होते हैं।
परागकण व्यर्थ नहीं जाते हैं। परगण की सम्भावना अधिक होती है।
पर परागण के दो लाभ बताइए ?
जीवन क्षम बीजों का उत्पादन।
नई क़िस्मों का उत्पादन।
स्वपरागण के दो हानि बताइए ?
बीज अच्छे नही होते हैं, नयी जाति व क़िस्म नही बनती है।
अगली पीढ़ी में कोई सुधार नही होता है।
परपरागण के दो हानि बताइए ?
परागकण बहुत मात्रा में बनते हैं जो व्यर्थ जाते हैं।
हानिकारक प्रभावी गुणों का संतति में प्रकट होना।