नमस्कार दोस्तों कैसे हो आप सब उम्मीद करता हूँ आप सब स्वस्थ मस्त होंगे। आज मैं आपके लिए लेकर आया हूँ नर जनन तंत्र क्या होता है, वीर्य के क्या गुण धर्म हैं, नर अर्थात् पुरुषों में यौवनारंभ में क्या क्या परिवर्तन देखने को मिलते हैं तो आइए शुरू करते हैं।
नर जनन तंत्र (MALE REPRODUCTIVE SYSTEM)
नर जनन तंत्र शरीर के श्रोणि क्षेत्र (Pelvic region) में मिलता है। नर जनन तन्त्र में एक जोड़ी वृषण (Testes), सहायक नलिकाएँ तथा एक जोड़ी ग्रन्थियाँ व बाह्य जननेन्द्रिय मिलते हैं।

प्राथमिक लैंगिक अंग (Primary sex organs) — प्राथमिक लैगिंक अंग जनद (gonads) कहलाते हैं। इनमें लैंगिक कोशिकाएँ अथवा युग्मक बनते हैं। ये हार्मोन का स्रवण भी करते हैं। जनदों की वृद्धि व प्रकर्यों का नियमन (regulation) अग्र पिट्यूटरी ग्रन्थि से निकलने वाले गोनेडोट्रोपिन (gonadotropin) हार्मोन से होता है। पुरुष जनदों को वृषण (testes) कहते हैं। इसमें (sperms) का निर्माण होता है।
द्वितीय अथवा सहायक लैंगिक अंग (Secondary or Accessory sex organs) – सहायक अथवा द्वितीय लैंगिक अंग जनन क्रिया में महत्वपूर्ण हैं। इन अंगों में प्रोस्टेट ग्रन्थि (Prostate gland), शुक्राशय (Seminal vesicle), शुक्र वाहक (Vas deferens) तथा शिश्न (penis) आदि हैं। यद्यपि ये न तो शुक्राणु निर्माण करते हैं, न ही किसी प्रकार के हार्मोन का स्रवण परन्तु जनन क्रिया में अभीष्ट भूमिका का निर्वहन करते हैं।
नर जनन अंग (MALE REPRODUCTIVE ORGANS)
पुरुष में निम्न जनन अंग मिलते हैं :
- वृषण कोश (scrotum) – जिसमें वृषण (testes) बन्द होते हैं।
- वृषण (testes) – इसमें शुक्राणु (sperm) व नर लिंग हार्मोन बनते हैं।
- वाहिनियाँ (ducts) – शुक्राणुओं को ले जाने के लिए।
- सहायक ग्रन्थियाँ (Accessory glands)— वीर्य निर्माण के लिए।
- शिश्न ( Penis) – शुक्राणुओं को स्त्री जनन पथ में स्थानान्तरित करने के लिए।

वृषण कोश (Scrotum)
यह त्वचा की बनी हुई थैली है जो धड़ के सामने तथा शिश्न के आधार पर दोनों टाँगों के मध्य शरीर से बाहर लटकी रहती है। वृषण कोश में वृषण (testes) बन्द होते हैं। वृषण कोश की भित्ति 3 स्तरीय होती है :
- बाहरी ढीली पतली रोमिल त्वचा ।
- वृषण कोश के दूरस्थ भाग में त्वचा के भीतर ढीले संयोजी ऊतक का स्तर।
- अन्दर की ओर अरेखित पेशी तन्तुओं की मोटी सबक्यूटेनियस (subcutaneous) पर्त जिसे डारटोस (Dartos (muscle) कहते हैं।
वृषण कोश की गुहा स्क्रोटल सेप्टम (Scrotal septum) द्वारा दो भागों में बँटी होती है। प्रत्येक भाग में एक वृषण (testis) होता है। प्रत्येक अर्द्ध गुहा एक संकरी 4-5 सेमी लम्बी नाल के द्वारा अन्दर गुहा के श्रोणि भाग से जुड़ी रहती है। यह नाल वक्षण नाल (inguinal canal) कहलाती है।
प्रत्येक वक्षण नाल से एक वृषण रज्जु (spermatic cord) वृषण से उदर गुहा में पहुँचती हैं। वृषण रज्जु के रेखित पेशी तन्तु सबक्यूटेनियस पेशी स्तर को उदर भाग के पेशी स्तर से जोड़ते हैं। यह पेशी समूह क्रीमेस्टर पेशी (cremaster muscle) कहलाता है।
इसमें एक धमनी, एक शिरा, एक तन्त्रिका तथा लसिका वाहिनी भी होते हैं। सभी संरचनाएँ एक साथ संयोजी ऊतक (connective tissue) से बँधी रहती हैं। वक्षण नाल से होकर शुक्र वाहिका (vas deferens) भी उदर गुहा तक पहुँचती है।
उदर गुहा के बाहर वृषण कोश में वृषण के आने के पश्चात् उदर गुहा तथा वृषण कोष के मध्य की वक्षण नालें (inguinal canals) बंद हो जाती हैं। यदि ये नाले बन्द न हो पाएँ तो वक्षण हार्निया (inguinal hernia) हो जाता है। यह वृषण कोष ताप नियामक (thermo-regulator) का कार्य करता है तथा वृषण के ताप को शरीर के ताप से 3°C कम रखता है।
ताप कम होने से शुक्राणु तथा शुक्राणुजनक ऊतक उच्च ताप से बचे रहते हैं। ताप अधिक होने पर वृषण कोष शिथिल होकर नीचे लटक जाते हैं परन्तु ठण्ड में ताप कम होने पर ये शरीर के समीप आ जाते हैं। उच्च ताप होने के कारण अथवा तंग कपड़े पहनने व अधिक गर्मी में निरन्तर कार्य करने पर वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या बहुत कम हो जाती है।
मनुष्यों में नर शिशु के जन्म से लगभग दो माह पूर्व वृषण की लीडिंग कोशिकाओं (cells of Leydig) से नर हॉरमोन (male hormone) का स्त्रावण होता है। इस हॉरमोन को टेस्टोस्टीरान (testosterone) कहा जाता है। टेस्टोस्टीरान के कारण हो वृषण इनगुवेनल नाल से होकर वृषण कोशों में पहुँचते हैं।
वृषणों का इस प्रकार उदरगुहा के बाहर (extra-abdominal) वृषण कोषों में स्थित होना अधिकांश स्तनियों में इसलिये आवश्यक होता है क्योंकि, शरीर का ताप अधिक होने के कारण, शुक्राणुओं (sperms) का परिपक्वन उदरगुहा में नहीं हो सकता। नर शिशु में वृषणों के वृषण कोशों में न उतरने की अवस्था क्रिप्टोआर्किडिस्म (cryptorchidism) कहा जाता है तथा मनुष्यों में यह नर – बन्ध्यता (male sterility) का एक प्रमुख कारण है।
वृषण (Testes)
मानव में 4-5 cm लम्बे, 2.5 cm मोटे तथा 20-25 ग्राम भार के गुलाबी रंग के दो अण्डाभ वृषण मिलते हैं। शैशव अवस्था में वृषण उदर गुहा के भीतर वृक्कों के पास स्थित होते हैं परन्तु वयस्क में उदर गुहा के बाहर शिश्न के आधार पर वृषण कोश में मिलते हैं।
वृषण का बाह्य आवरण एक मोटा द्विस्तरीय वृषण खोल (testicular capsule) होता है। इसके बाह्य पतले आवरण को ट्यूनिका वेजाइनेलिस (tunica vaginalis) कहते है। यह उदरावरण (abdominal peritoneum) से बनता है।
वृषण खोल के भीतरी मोटे स्तर को ट्यूनिका ऐल्बूजीनिया (tunica albuginea) कहा जाता है। तथा इसका निर्माण श्वेत तन्तु वाले संयोजी ऊतक से होता है। ट्यूनिका ऐल्बूजीनिया के संयोजी ऊतक से वृषण पट्टियाँ (Septula testis) बनती हैं जो वृषण के ऊतक को 200-400 शंक्वाकार पिंडकों (conical lobules) में बाँट देती है।

प्रत्येक पिंडक में दो या तीन अति कुंडलित शुक्रजन नलिकाएँ (seminiferous tubules) संयोजी ऊतक में रुधिर वाहिनियों तथा एंडोक्राइन ग्रन्थि कोशिकाओं के साथ पड़ी रहती हैं। इन कोशिकाओं की अन्तराली कोशिकाएँ (Interstitial cells) अथवा लीडिंग कोशिकाएँ (Leydig’s cells) कहते हैं जो टेस्टोस्टीरान का स्राव करती है।
शुक्रजन नलिकाएँ (Seminiferous tubules) पतली व कुंडलित होती हैं। यह ट्यूनिका प्रोप्रिया (tunica propria) से ढकी रहती हैं। सेमिनीफेरस नलिकाओं का भीतरी स्तर शुक्रजन कोशिकाओं तथा अवलम्बन कोशिकाओं से बनी जनन उपकला (germinal epithelium) होती है। मनुष्यों में प्रत्येक वृषण के पिंडकों में लगभग 750 सेमिनीफेरस नलिकाएँ पाई जाती हैं।
शुक्रजन कोशिका (Spermatogonia) – ये कोशिकाएँ विभाजित होकर शुक्राणु बनाती हैं। इस क्रिया को शुक्रजनन (spermatogenesis) कहते हैं। अवलम्बन कोशिकाएँ (Supporting cells) अथवा सरटोली कोशिकाएँ (Sertoli cells) अथवा उपचारक (nurse) कोशिकाएँ लम्बी स्तम्भी कोशिकाएँ हैं। इसकी स्वतन्त्र सतह कटी-फटी होती है जिसमें स्परमेटिड फँस कर चिपक जाते हैं। इन कोशिकाओं के मुख्य कार्य निम्न हैं—
- स्परमेटिड से विकसित हो रहे शुक्राणुओं और पूर्व विकसित शुक्राणुओं को अवलम्बन व सुरक्षा प्रदान करना।
- शुक्राणुओं को पोषण व ऑक्सीजन प्रदान करना।
- स्परमेटिड के कोशिकाद्रव्य की अतिरिक्त मात्रा का विघटन करना।
- इन्हिबिन (inhibin) प्रोटीन के हार्मोन का स्रवण जो शुक्राणु उत्पादन को प्रेरित करने वाले हार्मोन का निमयक है।
वृषण जालक (Rete testis) – वृषण की खड़ी काट में अतिकुंडलित सेमिनीफेरस नलिकाएँ वृषण के बाह्य सतह से भीतरी सतह के मध्य भाग तक फैली हुई दिखाई देती हैं। इसका अग्र भाग अति कुण्डलित परन्तु अन्तिम सिरा सीधा होता है। सभी नलिकाओं के अन्तिम भाग एक घने जाल में खुलते हैं जिसे वृषण जालक कहते हैं।

जालक से 15-20 पतली संवलित नलिकाएँ (convoluted ductules) अथवा अपवाहक नलिकाएँ (efferent ductules) अथवा शुक्र वाहिकाएँ (vasa efferentia) कहते हैं। सभी वाहिकाएँ वृषण की भीतरी सतह पर पहुँचकर एपिडिडिमस नलिका (epididymis duct अथवा ductus epididymis) में खुलती हैं।
अधिवृषण (Epididymis)
अधिवृषण पतली लगभग 6 मीटर लम्बी नलिका से बनी अति कुंडलित 4 सेमी० लम्बी चपटी कोमा (comma) आकार की संरचना है जो वृषण के अगले, पिछले व बाहरी किनारे से चिपकी होती है। इसके तीन भाग हैं-
- अगला शीर्ष भाग (globus major or caput epididymis)
- मध्य अधिवृषण का संकरा भाग (corpus epididymis), तथा
- पिछला ग्लोबस भाइनर (globus minor or cauda epididymis)
शीर्ष भाग में नलिका अति कुंडलित होती है। इसमें शुक्राणु परिपक्व हो निषेचन के लिए सक्रिय हो जाते हैं। पिछला भाग कम कुंडलित तथा मोटा होता है तथा शुक्रवाहिनी (vas deferens) में खुलता है। सम्पूर्ण अधिवृषण भ्रूणीय मीज़ोनेफ्रोस (embryonic mesonephros) की वुल्फियन नलिका (Wolffian duct) के रूपान्तरण से उत्पन्न होती है।
कॉडा एपिडिडाइमिस लचीले तन्तुओं के एक गुच्छे द्वारा वृषण कोश की पश्च दीवार से जुड़ा रहता है, इस लचीले गुच्छे को गुबरनैकुलम (gubernaculum) कहते हैं।
अधिवृषण के मुख्य कार्य निम्न हैं-
- वृषण से शुक्राणुओं को शुक्रवाहिनी तक पहुँचने का मार्ग देना।
- स्खलन से पूर्व शुक्राणुओं का पोषण।
- एक माह तक शुक्राणु अधिवृषण में संचित रह सकते हैं।
- इसके क्रमाकुंचन से शुक्राणु शुक्रवाहिनी की ओर बढ़ते हैं।
- निषेचन के लिए शुक्राणुओं के परिपक्वन का स्थल।
शुक्रवाहिनी (Vas deferens or Ductus deferens)
शुक्रवाहिनी अधिवृषण के पिछले भाग से निकली लगभग 40 सेमी लम्बी आंशिक रूप से कुंडलित नलिका है जो वक्षण गुहा (inguinal canal) से होकर उदर गुहा में आती है और मूत्राशय के ऊपर से होकर शुक्राशय (seminal vesicle) से मिलकर स्खलन वाहिनी (ejaculatory duct) बनाती है।
शुक्राशय (seminal vesicle) या यूटेरस मैस्कुलाइन्स (uterus masculinus) भ्रूणीय मुलेरियन नलिका (Mullerian duct) की रूपान्तरित रचना होती है। यह शुक्राणुओं को अस्थाई रूप से संग्रह करने के लिए एक एम्पुला (ampulla) बनती है तथा एक गाढ़े व चिपचिपे क्षारीय द्रव्य का स्रावण कर शुक्राणुओं के साथ वीर्य (semen) बनाती है।
स्खलन वाहिनी (Ejaculatory duct)
यह 2 सेमी लम्बी पतली भित्ति की बनी वाहिनी है जो कि दोनों ओर की प्रोस्टेट ग्रन्थि में से निकल कर यूरिथ्रा (मूत्रमार्ग) में खुलती है।
मूत्र मार्ग (Urethra)
यह मूत्राशय से निकलकर स्खलन वाहिनी से मिलकर मूत्र-जनन-नलिका (urino-genital canal) का निर्माण करती है। इसमें से होकर मूत्र, शुक्राणु, शुक्राशय, प्रोस्टेट ग्रन्थि तथा काउपर्स ग्रन्थि के स्राव बाहर निकलते हैं। मूत्र मार्ग लगभग 20 सेमी० लम्बा होता है तथा शिश्न में से होकर उसके शीर्ष पर मूत्रोजनन छिद्र (urinogenital aperture) द्वारा बाहर खुलता पर दो स्फिंक्टर मिलते हैं-

- आंतरिक स्फिंक्टर (Internal sphincter) – यह मूत्र मार्ग के आधार पर होता है।
- बाह्य स्फिंक्टर (External sphincter) – यह मूत्र मार्ग के चारों ओर झिल्लीनुमा होता है। मूत्रमार्ग के तीन भाग होते हैं। (
- प्रोस्टेटिक यूरिथ्रा (Prostatic urethra) – यह प्रोस्टेट ग्रन्थि के मध्य से निकलती है तथा स्खलन वाहिनियाँ इसमें खुलती हैं।
- मेम्ब्रेनस यूरिथ्रा (Membranous urethra) – यह मूत्र मार्ग का मध्य भाग है जो लगभग 11 सेमी० लम्बा है। यह प्रोस्टेट ग्रन्थि तथा शिश्न के मध्य स्थित पेशीय पट से निकलकर शिश्न में प्रवेश करता है। एक जोड़ी काउपर्स ग्रन्थियाँ भी इसी भाग में खुलती हैं, इन्हें बल्बोयूरीथल ग्रन्थियाँ (bulbo urethral glands) भी कहते हैं।
- शिश्नीय या स्पंजी यूरीथा (Penile or spongy urethra) – यह यूरीथ्रा का अन्तिम भाग है जो शिश्न के अन्दर से निकलता है। इसकी लम्बाई 16-17 सेमी० होती हैं।
शिश्न (Penis)
ये बेलनाकार घर्षण (erectile) मैथुनांग (copulatory organ) है। यह त्वचा से ढका रहता है तथा इसके तीन भाग होते हैं।
- शिश्न मूल (Root of Penis) – यह मूत्र जनन पट से जुड़ा रहता है।
- शिश्नकाय (लिंग का शरीर) – शिश्न का मुख्य भाग है।
- शिश्न मुंड (Glans Penis ) — शिश्न का अन्तिम भाग है जिस पर प्रिप्यूस (prepuce) के रूप में ढ़ीली त्वचा का एक आवरण ढका रहता है। ग्लांस पीनिस नर जननांगों का सबसे संवेदी भाग होता है।
सहायक ग्रन्थियाँ (Accessory glands)
नर जनन अंगों से सम्बन्धित ग्रन्थियाँ निम्न हैं-
- प्रोस्टेट ग्रन्थि (Prostate gland) – मनुष्य तथा अन्य सभी स्तनियों में एक प्रोस्टेट ग्रन्थी मिलती है जो अपनी वाहिनी द्वारा यूरिया में खुलती हैं। इसका स्राव वीर्य (semen) का 25-30% भाग बनाता है। यह तन्तु क्षारीय द्रव है जो शुक्राणुओं को सक्रिय करता है। इसमें प्रोटिओलिटिक विकर जैसे पेप्सिनोजन, लाइसोजाइम, एमाइलेज तथा हाइलूरोनिडेज़ आदि सिट्रेट व फॉस्फटेज़ होते हैं। ये वीर्य के स्कन्दन को रोकते हैं। 40-50 वर्ष की आयु के बाद पुरुषों में कभी-कभी प्रोस्टेट फूलकर बड़ी हो जाती है जिससे मूत्र मार्ग पर दबाव पड़ता है तथा मूत्र त्याग करने में बाधा होती है।
- काउपर्स ग्रन्थियाँ (Cowper’s glands) – प्रोस्टेट गन्थी के ठीक पीछे 1 जोड़ी काउपर्स ग्रन्थियाँ होती है इनका स्राव भी यूरिथ्रा में आता है। यह भी क्षारीय होता है। मैथुन के समय यह मूत्र मार्ग को क्षारीय व चिकना कर मूत्र की अग्नीयता को समाप्त कर देता है।
- शुक्राशय (Seminal vesicles) – ये मूत्राशय के पीछे स्थित होते हैं। ये क्षारीय शुक्रीय द्रव का स्राव करते हैं जो वीर्य का 80% भाग बनाता है। इसमें फ्रक्टोज़, प्रोस्टाग्लान्डिन्स तथा सेमीनेजेलिन प्रोटीन मिलते हैं। फ्रक्टोज़ का कार्य शुक्राणुओं को ऊर्जा देना है, प्रोस्टाग्लान्डिन्स का कार्य शुक्राणु व अण्ड को संलयन के लिए योनि में संकुचन को प्रेरित करना है। सेमिनोजेलिन स्खलित वीर्य का स्कन्दन (coagulation) करता है जिससे वीर्य गाढ़ा होता है।
- लिटर की ग्रन्थियाँ (Glands of Littre ) — यूरिथ्रा की सम्पूर्ण लम्बाई में अनेकों एक कोशीय सूक्ष्म लिटर ग्रन्थियाँ भी पाई जाती है। इन ग्रन्थियों का श्लेमीय स्त्राव यूरिथ्रा को सदैव नम बनाये रखता है।
वीर्य (SEMEN)
यह शुक्राणुओं तथा सहायक लैंगिक ग्रन्थियों का एक दूधिया तरल मिश्रण है जो कि मैथुन (copulation) के समय स्खलित होता है। सामान्यतः एक बार में 3.5 से 5 मि०ली० सीमन स्खलित होता है जिसके प्रति मि०ली० में लगभग 120 मीलियन (अनुमानत: 12 करोड़) शुक्राणु पाये जाते हैं। स्खलन के उपरान्त प्रत्येक शुक्राणु शरीर के तापमान पर 24 से 72 घंटे तक जीवित रहता है। वीर्य के कार्य निम्न हैं-
- स्त्री की योनि में शुक्राणु पहुँचने के लिए तरल माध्यम।
- शुक्राणुओं का पोषण करना।
- pH 7.3-7.5 होने के कारण नर की यूरिथ्रा तथा स्त्री की योनि की अम्लीयता दूर करना ।
नर में यौवनारंभ (PUBERTY IN MALE)
11-13 वर्ष की आयु में यौवनारंभ के साथ पुरुष के जनन अंग प्रकार्यक होकर अपना कार्य आरम्भ कर देते हैं। इस समय शुक्रजनक नलिकाएँ शुक्राणु का निर्माण आरम्भ करती हैं। वृषण कोषों तथा शिश्न का आकार बढ़ जाता है। चेहरे पर बाल उग आते हैं। आवाज भारी हो जाती है तथा शरीर की लम्बाई बढ़ जाती है।
अग्र पिट्यूटरी ग्रन्थि से स्रावित LH व FSH हार्मोन द्वारा शुक्रजनक नलिकाओं तथा लीडिंग कोशिकाओं का नियमन होता है। लीडिंग कोशिकाओं से स्रावित टेस्टोस्टीरोन तथा अग्र पिट्यूटरी से निकलने वाले गोनेडोट्रॉपिक हार्मोन्स (FSH and LH) के कारण नर शिशु में वृषणों का देह गुहा के बाहर वृषण कोशों में अवतरण, नर में यौवनारंभ (puberty) के कारण बाह्य जननांगो का विकास, सहायक लैंगिक अंग तथा शुक्रानुजनन यौवनारंभ के प्रमुख परिवर्तन होते हैं।