डीसी जनरेटर एक विद्युत उपकरण है जो यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है। इसमें मुख्य रूप से तीन मुख्य भाग होते हैं, अर्थात चुंबकीय क्षेत्र प्रणाली, आर्मेचर और कम्यूटेटर और ब्रश गियर। डीसी जेनरेटर के अन्य भाग चुंबकीय फ्रेम और योक, पोल कोर और पोल शूज़, फील्ड या रोमांचक कॉइल, आर्मेचर कोर और विंडिंग्स, ब्रश, एंड हाउसिंग, बियरिंग्स और शाफ्ट हैं।
दिष्ट धारा डायनमो (DC generator) अथवा जनित्र –
इसकी रचना प्रत्यावर्ती धारा डायनमो के समान होती है। अन्तर केवल इतना है कि इसमें सी वलयों के स्थान पर विभक्त वलयों को उपयोग में लाते हैं।

सिद्धान्त-
जब किसी बन्द कुण्डली को किसी शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र में तेजी से घुमाया जाता है तो उसमें से होकर गुजरने वाले चुम्बकीय फ्लक्स में लगातार परिवर्तन होता रहता है जिसके कारण कुण्डली में एक विद्युत धारा प्रेरित हो जाती है। कुण्डली को घुमाने में किया गया कार्य ही कुण्डली में विद्युत ऊर्जा के रूप में परिणत हो जाता है।
संरचना –
क्षेत्र चुम्बक (Field Magnet) –
यह एक शक्तिशाली चुम्बक NS होता है। इसका कार्य शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करना है जिसमें कुण्डली घूमती है। इसके द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र की बल-रेखाएँ N से S की ओर होती हैं।
आर्मेचर (Armature) –
यह एक कच्चे लोहे के बेलन पर पृथक्कित ताँबे के तार को बहुत से फेरों में लपेटकर बनाई जाती है। चित्र में इसे a bc d से प्रदर्शित किया गया है। इसे आर्मेचर कुण्डली भी कहते हैं। इसको चुम्बक NS के ध्रुवों के बीच बाह्य शक्ति; जैसे-पेट्रोल इंजन अथवा जल-शक्ति द्वारा तेजी से घुमाया जाता है।
विभक्त वलय (Split Rings) –
विभक्त वलय पीतल के खोखले बेलन को उसकी लम्बाई के अनुदिश काटकर बनाए जाते हैं। कुण्डली का एक सिरा एक विभक्त वलय P तथा दूसरा सिरा दूसरे विभक्त वलय Q से जोड़ दिया जाता है।
बुश (Brush) –
ग्रेफाइट (कार्बन) के दो ब्रुश M व N विभक्त वलय P और Q को स्पर्श किए रहते हैं और बाह्य परिपथ में धारा प्रवाहित करते हैं। ये दोनों ब्रुश बाह्य परिपथ के समान सिरों से सदैव जुड़े रहते हैं, परन्तु जैसे-जैसे आर्मेचर घूमता है, P और Q उनको बारी – बारी से स्पर्श करते हैं और एक अर्द्ध-चक्र (half cycle) तक उसके सम्पर्क में रहते हैं, तत्पश्चात् ब्रुशों को आपस में बदल देते हैं।
कार्यविधि –
जब आर्मेचर कुण्डली abcd को दक्षिणावर्त दिशा में घुमाया जाता है तो कुण्डली में विद्युत-चुम्बकीय प्रेरण के कारण विद्युत धारा प्रेरित हो जाती है। धारा की दिशा फ्लेमिंग के दाएँ हाथ के नियम से ज्ञात की जाती है। कुण्डली के आधा चक्कर पूरा करने तक धारा की दिशा वही रहती है। अत पहले आधे चक्कर में धारा Q से P की दिशा में बहती है।
अगले आधे चक्कर में कुण्डली में धारा की दिशा बदल जाती है, परन्तु पहले ही ब्रुशों की स्थिति को इस प्रकार समायोजित किया जाता है कि जिस क्षण कुण्डली धारा की दिशा बदलती है ठीक उसी क्षण ब्रुश का सम्बन्ध एक भाग से कटकर दूसरे भाग से हो जाए। अत: बाह्य परिपथ में धारा सदैव Q से P की ओर ही बहती है क्योंकि विभक्त वलय MN ब्रुशों के सापेक्ष अपना स्थान बदल देते हैं। इस प्रकार बाह्य परिपथ में दिष्ट धारा प्राप्त होती है।
आर्मेचर किसका बना होता है?
यह एक कच्चे लोहे के बेलन पर पृथक्कित ताँबे के तार को बहुत से फेरों में लपेटकर बनाई जाती है। चित्र में इसे a bc d से प्रदर्शित किया गया है। इसे आर्मेचर कुण्डली भी कहते हैं।
आर्मेचर कितने प्रकार के होते हैं?
विद्युत-यांत्रिक मशीनों या विद्युत-मशीनों के दो मुख्य भागों में से एक को आर्मेचर कहते हैं।
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