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भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य सम्बन्ध | कक्षा-12 अपठित गद्यांश

जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाना चाहिए, वह आज भारतीय, मानसिक क्षितिज में क्रियाशील नहीं है। आज एक प्रकार की अव्यवस्थित व्यावसायिक संस्कृति व्याप्त है, जिसकी जड़ शायद यूरोप में है। भारतीयों के सार्वजनिक व्यवहार में गुरु-शिष्य सम्बन्ध का भी तदनुरूप परिवर्तन हो गया है। यहाँ गुरु वेतनभोगी नहीं होते थे और न शिष्य को ही शुल्क देना पड़ता था।

पैसे देकर विद्या खरीदने की यह क्रय-विक्रय पद्धति निस्सन्देह इस भारतीय मिट्टी की उपज नहीं है। यहाँ शिक्षणालय एक प्रकार के आश्रम अथवा मन्दिर के समान थे। को साक्षात् परमेश्वर ही समझा जाता था। शिष्य पुत्र से अधिक प्रिय होते थे। यहाँ सम्मान मिलना ही शक्ति पाने का रहस्य रहा है।

प्राचीन काल में गुरु की शिक्षा दान क्रिया उनका आध्यात्मिक अनुष्ठान थी, परमेश्वर प्राप्ति का उनका वह एक माध्यम था। वह आज पेट पालने का जरिया बन गई है। प्रारम्भ में विवेकानन्द को भारत में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हुआ, पर जब उन्होंने अमेरिका में नाम कमा लिया तो भारतवासी दौड़े मालाएँ लेकर स्वागत करने। रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भी जब नोबल पुरस्कार मिला तो बंगाली दौड़े उनका स्वागत करने। भरतनाट्यम और कथकली को कोई नहीं पूछता था, पर जब विदेशों में मान मिलने लगा तो आश्चर्य से भारतवासी सोचने लगे – ‘अरे हमारी संस्कृति में इतनी अपूर्व चीजें भी पड़ी थीं क्या!’

प्रश्न: (क) जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाना चाहिए, वह आज भारतीय मानसिक क्षितिज में क्रियाशील क्यों नहीं है?

प्रश्न: (ख) प्राचीन भारत में गुरु-शिष्य सम्बन्ध कैसे होते थे?

प्रश्न: (ग) गुरु-शिष्य सम्बन्ध में परिवर्तन किसके प्रभावस्वरूप हुआ है?

प्रश्न: (घ) स्वामी विवेकानन्द और रवीन्द्रनाथ टैगोर को भारत में कब महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ?

प्रश्न: (ङ) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक लिखिए।

उत्तर: (क) आज यूरोप की व्यावसायिक संस्कृति का प्रभाव हमारे सार्वजनिक जीवन को प्रभावित कर रहा है। इसी व्यापारी संस्कृति के प्रभाव के कारण भारतीय संस्कृति अपने मूल स्वरूप से दूर जा पड़ी है और मानसिक क्षितिज पर क्रियाशील भी नहीं रह गई है।

उत्तर: (ख) प्राचीन भारत में गुरु-शिष्य सम्बन्ध अत्यन्त प्रगाढ़ हुआ थे। गुरु शिष्य को पुत्रवत् स्नेह करता था और शिष्य गुरु को परमेश्वर का साक्षात् स्वरूप ही मानता था। गुरु शिष्य को निःशुल्क विद्या प्रदान करता था और शिष्य गुरु की सेवा करके स्वयं को धन्य मानता था। शिक्षा और विद्या के इस आदान-प्रदान में धन या पैसा अनुपस्थित था।

उत्तर: (ग) गुरु-शिष्य सम्बन्धों में यह परिवर्तन यूरोप की व्यावसायिक संस्कृति के प्रभावस्वरूप आया है।

उत्तर: (घ) स्वामी विवेकानन्द और रवीन्द्रनाथ टैगोर को भारत में पहले कोई गम्भीरता से नहीं लेता था, परन्तु जब स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका में अपने भाषणों से धूम मचा दी और खूब नाम व प्रशंसा प्राप्त की, तब भारतवासियों का ध्यान भी उधर गया। इसी प्रकार जब रवीन्द्रनाथ टैगोर को विश्व के सर्वोच्च सम्मान-नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, तब यहाँ के लोगों ने भी उनकी उच्चस्तरीयता का गुणगान करना शुरू कर दिया। भारतीयों ने इन दोनों महापुरुषों को महत्त्वपूर्ण स्थान तब दिया जब उन्हें देश के बाहर अत्युच्च सम्मान मिला।

उत्तर: (ङ) शीर्षक– ‘भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य सम्बन्ध’

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