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भारतीय गणित का इतिहास | विश्व को सबसे बड़ी देन

नमस्कार दोस्तों कैसे हो आप सब उम्मीद करता हूँ कि सब अच्छे होंगे तो आज हम आपके लिए लेकर आए हैं भारतीय गणित का इतिहास। कि किस प्रकार हमारे भारत ने प्राचीन काल से ही गणित से पूरे विश्व में अपना दबदबा बना कर रखा है। तो चलिए शुरू करते हैं।

अंकगणित को समस्त विज्ञान का सिरमौर कहा जाता है। 3000 वर्ष पहले से भारतीयों का यही मत था। वेदांग ज्योतिष 4 में लिखा है –

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा ।

तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितिम् ॥

जिस प्रकार मयूर की शिखायें तथा सर्प की मणियाँ सर्वोपरि शीर्ष स्थान पर स्थित होती हैं उसी प्रकार वेदांग शास्त्रों में गणित का स्थान सर्वोपरि है।

विश्व को सबसे बड़ी देन-

प्राचीन वैदिक काल के भारतीयों की विश्व को सबसे बड़ी देन गणित और संख्याओं का आविष्कार है। विज्ञान की जो प्रगति आज हो रही है उसकी कल्पना भी ‘शून्य’ के बिना असम्भव है। किसी भी संख्या को शून्य सहित दस अंकों में व्यक्त करना और प्रत्येक अंक को एक निरपेक्ष मान और एक स्थानीयमान देना, गणित और विश्व सभ्यता को भारत का बड़ा योगदान है।

संख्या प्रणाली को अरबवासियों ने भारत से सीखा। 712 ई० में जब अरबों ने भारत के सिन्ध प्रदेश पर आक्रमण किया तो वे अपने साथ यहाँ प्रचलित अंकों की जानकारी भी ले गये और उसे अपना लिया। उन्होंने इसे इल्म- उल-हिन्दसा (हिन्द की विद्या) नाम दिया। अरबों से इसे पाश्चात्य देशों ने सीखा।

पाश्चात्य देशों में प्रचलित गिनती लिखने की रीति बहुत जटिल थी। भारतीय अंक प्रणाली सहज और सरल थी। प्रसिद्ध अरबी गणितज्ञ अल-ख्वारिजमी ने ईसा की आठवीं सदी में अरबी भाषा में पहला अंकगणित सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा। इस पुस्तक के गणित भाग को ‘इल्म हिन्द’ का नाम दिया गया।

कई सौ वर्षों बाद इस अरबी ग्रन्थ का लैटिन भाषा में अनुवाद हुआ। यह अनूदित ग्रन्थ बहुत वर्षों तक यूरोप के विश्वविद्यालयों के पाठ्यग्रन्थ के रूप में प्रचलित रहा। फ्रांस के महान गणितज्ञ पीयरे लाप्लास ने लिखा है –

‘भारत ने ही हमें प्रत्येक संख्या को दस अंकों द्वारा व्यक्त करने की उत्तम प्रणाली दी है। इसकी महत्ता इस बात से भी सिद्ध होती है कि आर्किमिडीज तथा अपोलोनियम जैसे बुद्धिमान गणितज्ञ भी इस पद्धति को नहीं खोज पाये।’

पीयरे लाप्लास

उस युग के भारतीयों को न केवल संख्याओं और उनकी गणना की जानकारी थी, वरन वे ईसा से हजार वर्ष से भी अधिक पूर्व वेदाङ्ग ज्योतिष में अंकगणित की आधारभूत प्रणालियों से भी भलीभाँति परिचित थे। उन्हें वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल का भी ज्ञान था। नारद पुराण में इसकी विस्तार से चर्चा है। उन्हें भिन्नों और उनके जोड़, घटाना, गुणा, भाग की रीतियों का समुचित ज्ञान था।

यथा- “अर्धप्रमाणेन पादप्रमाणं विधीयते।” (का०शु०सू०) अर्थात् (1/2)2 = (1/4)

इसी प्रकार (1 + 1/2)2 = 9/4 पाद अर्थात् चतुर्थ अंश, चौथाई या पाव । भिन्नों को व्यक्त करने के लिए भाग का प्रयोग किया जाता था यथा पञ्चम भाग 1/5,सप्तम भाग1/7, दशम भाग 1/10 |

बीजगणित तथा रेखागणित का विकास-

वैदिक ऋषियों द्वारा स्थापित व्यवस्था समस्त मानव ज्ञान-विज्ञान की जननी है। यज्ञों को उचित समय पर करने के लिये ज्योतिष और गणित का विकास हुआ। विभिन्न प्रकार के यज्ञों के लिए रेखागणित के नियम बने। यज्ञवेदियों के लिये विविध ऊँचाई, लम्बाई और चौड़ाई की ईंटें काम में लाई जाती थीं।

इनकी सही नाप, जोड़ तथा इनकी वेदियों की अनुकूलता के लिये काम में लाये जाने वाले चिह्नों के प्रयोग ने आगे चलकर बीजगणित का रूप ग्रहण किया। रेखागणित का सही-सही ज्ञान कराने के लिए ईसा से 800 वर्ष पूर्व ‘कल्प’ नामक वेदाङ्ग में ‘शुल्व सूत्रों’ की रचना की गई।

शुल्व सूत्रों में यज्ञ हेतु विविध वेदियों के निर्माण हेतु आवश्यक स्थापत्यमान दिये हैं। वेदी के मापन में प्रयुक्त रस्सी को ‘शुल्व’ कहा जाता है। सूत्र का अर्थ है जानकारी को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करना।

शुल्व सूत्र रचयिता – बोधायन प्राचीनतम सूत्रकार माने जाते हैं। बौधायन के शुल्व सूत्र में तीन अध्याय हैं। आज पाइथागोरस के नाम से सिखाई जाने वाली प्रमेय- ‘समकोण त्रिभुज के कर्ण पर निर्मित वर्ग का क्षेत्रफल दो भुजाओं पर निर्मित वर्गों के क्षेत्रफल के योग के समान होता है।’ -बोधायन ने पाइथागोरस से बारह-चौदह सौ वर्ष पूर्व सिद्ध कर दी थी।

कई अन्य भारतीयों ने भी इस थ्योरम (प्रमेय) को पाइथागोरस से पहले अलग-अलग प्रकार से सिद्ध किया था। शतपथ ब्राह्मण में भी इस प्रमेय के विषय में नियम दिया हुआ है। खेद है कि हमारी पाठ्यपुस्तकों में इस संदर्भ में बोधायन का नाम तक नहीं लिया जाता।

दीर्घचतुरस स्याक्ष्णया रज्जूः पार्श्वमानी तिर्यक्मानी

यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभ्यं करोति ।

बोधायन के शुल्व सूत्र में दी गई प्रमेय है

अर्थात् किसी आयत का कर्ण क्षेत्रफल उतना ही होता है, जितना उसकी लम्बाई और चौड़ाई का होता है। सरलता से समझ में आता है कि यदि किसी आयत का कर्ण ब स लम्बाई अ ब तथा चौड़ाई अ स हैं तो बोधायन का प्रमेय ब स2 = अ ब2+ अ स2 होता है।

बोधायन ने उक्त प्रसिद्ध प्रमेय के अतिरिक्त कुछ और प्रमेय भी दिये हैं- किसी आयत का कर्ण आयत का समद्विभाजन करता है, आयत के दो कर्ण एक दूसरे का समद्विभाजन करते हैं। समचतुर्भुज के कर्ण एक दूसरे को समकोण पर विभाजित करते हैं आदि। बोधायन और आपस्तम्ब दोनों ने ही किसी वर्ग के कर्ण और उसकी भुजा का अनुपात बताया जो एकदम सही हैं।

बोधायन प्रमेय
बोधायन प्रमेय

शुल्व सूत्र में किसी त्रिकोण के क्षेत्रफल के बराबर क्षेत्रफल का वर्ग बनाना, वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर का वृत बनाना, वर्ग के दो गुने, तीन गुने या एक तिहाई क्षेत्रफल के समान क्षेत्रफल का वृत बनाना आदि विधियाँ बताई गई हैं।

भास्कराचार्य की ‘लीलावती’ में बताया गया है कि किसी वृत में बने समचतुर्भुज, पंचभुज, षड्भुज, अष्टभुज आदि की एक भुजा उस वृत के व्यास के एक निश्चित अनुपात में होती हैं।

त्रिभुजस्य फलशरीरं समदल कोटी भुजाधसंवर्गः।

आर्यभट्ट ने त्रिभुज का क्षेत्रफल निकालने का भी सूत्र दिया है। यह सूत्र इस प्रकार है
त्रिभुज का क्षेत्रफल
त्रिभुज का क्षेत्रफल

त्रिभुज का क्षेत्रफल उसके लम्ब तथा लम्ब के आधार वाली भुजा के आधे के गुणनफल के बराबर होता है। प्राचीन काल में यज्ञ वेदियाँ ज्यामिती के सिद्धान्तों पर बनती थीं। मन्दिरों व अन्य भवनों का निर्माण भी इन्हीं पर आधारित होता था।

पाई (π) का भारतीय इतिहास-

आर्यभट्ट पहले गणितज्ञ थे जिन्होंने 476 ईस्वी में पाई (π) का परिमित मान निकाला था।

चतुरधिकम् शतमष्टगुणम् द्वाषष्ठिस्तथा सहस्राणाम्

अयुतद्वय निष्कम्भस्य आसन्नो वृत्तपरिणाहः ॥

आर्य भट्टीय-10

सौ में चार जोड़कर, उसे 8 से गुणा करें और उसमें 62000 जोड़ें। यह योगफल 20000 व्यास के वृत्त की परिधि का लगभग माप होगा अर्थात 20000 व्यास के वृत्त की परिधि 62832 होगी। इस प्रकार उनके अनुसार ग = 3.1416 जो 4 दशमलव स्थानों तक सही है।

त्रिकोणमिति –

त्रिकोणमिति की संकल्पनाओं, सूत्रों तथा सारणियों का वर्णन ‘सूर्य सिद्धान्त’ (400 ईस्वी) वराहमिहिर के ‘पञ्च सिद्धान्त’ (400 ईस्वी) तथा ब्रह्मगुप्त के ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ (630 ईस्वी) में मिलता है।

वैदिक गणित –

गोवर्धन पीठ पुरी के शंकराचार्य पूज्य स्वामी भारती कृष्णतीर्थ जी ने एक गणितीय पद्धति प्रस्तुत की जिसका आधार वेद हैं। उन्होंने 16 मुख्य सूत्र तथा 13 उपसूत्र दिये जिनका अभ्यास करने पर अंकगणित, बीजगणित, रेखा गणित, गोलीय त्रिकोणमिति, घन, ज्यामिति, समाकल, अवकल-कलन इत्यादि के प्रश्न चुटकी में हल किये जा सकते हैं। वैदिक गणित सरल तथा आनन्द देने वाला गणित है।

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