नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका आज इस लेख में दोस्तों आज हम आपको बीजाण्ड में पराग नलिका का प्रवेश के बारे में समझाएँगे। तो चलिए शुरू करते हैं।
परागनली का प्रवेश बीजाण्ड में (भ्रूणकोष में) तीन प्रकार से हो सकता है।

- अण्डद्वारी प्रवेश (Porogamy)– इसमें परागनली का प्रवेश अण्डद्वार (micropyle) से होता है। यह सामान्य विधि है। यह सामान्यतः द्विबीजपत्री में मिलता है।
- निभागी प्रवेश (Chalazogamy)– कुछ पौधों में परागनली का प्रवेश अण्डद्वार से न होकर निभाग (chalaza) से होता है। इसको निभागी प्रवेश कहते हैं। जैसे- केजुराइना में।
- कवलोदंग-भेदी प्रवेश (Mesogamy)- जब परागनली अध्यावरण (integument) को भेदकर बीजाण्ड में प्रवेश करती है उसे कवलोदंग-भेदी प्रवेश कहते हैं। जैसे कुकुरबिटा में।
पराग नलिका वर्तिका से होकर भ्रूणकोष तक पहुँचने के लिए बीजाण्डकाय (nucellus) में से प्रवेश करती है। यह तीन प्रकार से होती है-
- अण्ड व एक सिनरजिड़ के मध्य से (A)
- भ्रूणकोष की भित्ति व एक सिनरजिड़ के मध्य से (B)
- एक सिनरजिड को नष्ट कर उसमें से (C) प्रवेश करती है।

पराग नलिका का प्रवेश फिलीफार्म एपरेटस की ओर से सिनरजिड के अग्रभाग से होता है। भ्रूणकोष में पहुँचकर परान नलिका के पदार्थ उसमें मुक्त हो जाते हैं। एक सिनरजिड नष्ट हो जाता है। दूसरा सिनरजिड निषेचन के पश्चात् नष्ट हो जाता है। कुछ पौधों जैसे― यक्का (Yucca), नीलम्बो (Nelumbo) आदि में सिनरजिड पराग नलिका के प्रवेश से पूर्व ही नष्ट हो जाते हैं।

प्लेम्बेगो (Plumbago) में सिनरजिड़ अनुपस्थित होते हैं। ये सभी परिस्थितियाँ इंगित करती हैं कि निषेचन में सिनरजिड़ अधिक महत्वपूर्ण नहीं होते हैं।

सामान्यतः दोनो नर युग्मक भ्रूणकोष से मुक्त होते हैं। परन्तु कुछ पौधों में पराग नलिका आगे जाकर एक अथवा अनेक भागो में विभक्त हो जाती है।
पराग नलिका के एक भाग में एक नर युग्मक होता है और वह अण्ड कोशिका तक जाती है तथा दूसरा भाग दूसरे नर युग्मक के साथ द्वितीयक केन्द्रक तक पहुँचता है। उसके पश्चात् ही नर युग्मक मुक्त होते हैं।

प्रथम निषेचन में एक नर युग्मक (n) अण्डकोशिका (n) के साथ संलयन कर भ्रूण निर्माण करता है। युग्मनज की गुणसूत्र संख्या 2n होती है। यही सत्य निषेचन है। दूसरा नर युग्मक (n) द्वितीयक केन्द्रक (2n) के साथ संलयन कर भ्रूणपोष (endosperm) बनाता है जो बहुगुणित सामान्यतः त्रिगुणित (3n) होता है।
इस प्रकार यह द्विनिषेचन व त्रिसमेकन कहा जाता है। जो केवल आवृतबीजीयों में मिलता है जहाँ निषेचन की क्रिया दो बार होती है।
आवृतबीजीयों में सर्वप्रथम नवाशीन (Nawashin) ने सन् 1898 में द्विनिषेचन व त्रिसमेकन (double fertilization and triple fusion) का वर्णन किया। यह क्रिया उन्होंने लिलियम (Lilium) तथा फ्रिटिलेरिया (Fritillaria) में देखी।
नवाशीना व ग्रासीमोवा (Nawaschina and Grassimova) ने 1960 में बताया कि संलयन की क्रिया आवृतबीजीयों में तीन प्रकार से होती है जैसे-

- पूर्व सूत्री विभाजन (Premitotic): नर युग्मक मादा युग्मक से संलयन के तुरन्त पश्चात् युग्मनज बनाता है जैसे पोएसी व एस्टरेसी कुल के सदस्यों में।
- पश्च सूत्री विभाजन (Postmitotic): नर युग्मक अण्ड कोशिका के केन्द्र के समीप कुछ समय तक उसी प्रकार रहता है तथा बाद में दोनों केन्द्रकों का संलयन उस अवस्था में होता है जब दोनों केन्द्रक सूत्री विभाजन प्रारम्भ कर चुके होते हैं। जैसे—फ्रिटिलेरिया तथा लिलियम में।
- मध्यावस्था (Intermediate): नर युग्मक के केन्द्रक में पहले सूत्री विभाजन पूर्ण होता है तथा इसके बाद वह अण्ड कोशिका के केन्द्रक के साथ संलयन करती है। दोनों केन्द्रकों में अपूर्ण मिश्रण होता है, जैसे- इम्पेटिएन्स ( Impatiens) में।
त्रिसमेकन (Triple fusion)
भ्रूणकोष के दोनों ध्रुवों (poles) पर से एक-एक केन्द्रक मध्य में आकर संलयन करता है तथा द्वितीयक केन्द्रक (2n) बनाता है जो बाद एक नर युग्मक (n) के साथ संलयित होकर त्रिगुणित (3n) भ्रूणपोष (endosperm) का निर्माण करते हैं ये क्रिया त्रिसमेकन की क्रिया है।
यदि किसी कारण से निषेचन नहीं हो पाता है तब अण्डाशय सूख कर झड़ जाता है। परन्तु कुछ पौधों में निषेचन के बिना ही फल निर्माण की क्रिया होती है। इसे अनिषेक फलन (Parthenocarpy) कहते हैं। इस प्रकार के फल बीज रहित (seedless) होते हैं।
परागण व निषेचन के मध्य का समय पराग नलिका की वृद्धि की दर पर आधारित होता है। यह कुछ घण्टों से कुछ दिनों तक घेर सकती है। मीडोव सेफ्रन (Meadow safaron) में यह 6 महीने का हैं।
पराग नलिका की वृद्धि तापमान पर निर्भर करती है।नम व नर्म वातावरण में सूर्य के प्रकाश में परागनलिका 24 घण्टे में दूरी तय कर लेती है जो ठण्डे व शुष्क अवस्था में 3 से 4 गुना अधिक समय ले सकती है।
सामान्यतः 5°C से कम ताप पर पराग नलिका में वृद्धि नहीं होती है। अधिकतम वृद्धि के लिए 10-25°C का तापमान आवश्यक है। इसे अधिक ताप पर भी वृद्धि निरुद्ध हो जाती है।
अतिसंयोजिता एवं पॉलीस्पर्मी (Multiple Fusion and Polyspermy)
साधारणतया एक भ्रूणकोष में एक ही परागनली आती है परन्तु कुछ पौधों में देखा गया है कि एक बीजाण्ड में एक ही भ्रूणकोष होने के स्थान पर अधिक भ्रूणकोष हो सकते हैं।
ऐसी स्थिति में कई परागनलियाँ भी भीतर आ सकती हैं तथा उनसे कई नर युग्मक भी बीजाण्ड तक आ सकते हैं परन्तु इनकी संख्या उसी अनुपात में होती है जितने कि भ्रूणकोष प्रति बीजाण्ड होते हैं; जैसे लिकनिस (Lychnis)|
निषेचन केवल एक ही जाति (species) के पौधों में या एक ही वंश (genus) की विभिन्न जातियों के पौधों में होता है। यह कभी भी दो विभिन्न वंश के पौधों में नहीं होता है।
कभी-कभी पॉलीस्पर्मी अवस्था में एक परागकण के एक नरयुग्मक का संलयन अण्डकोशिका से होने पर भ्रूण बनता है परन्तु द्वितीयक केन्द्रक से संलयन करने वाला दूसरा नर युग्मक किसी दूसरे परागकण से होता है। इसे विषमनिषेचन (Heterofertilization) कहते हैं।
द्विनिषेचन का महत्व (Significance of Double Fertilization)
द्विनिषेचन की जानकारी सर्वप्रथम नवाशीन ने सन् 1898 में दी तथा दूसरे निषेचन के फलस्वरूप भ्रूणपोष (endosperm) बनता है। यह भ्रूणपोष ही बढ़ते हुए भ्रूण का पोष करता है जिसके कारण भ्रूण का विकास होता है।
प्राय: यह देखा गया है कि यदि त्रिसमेकन (triple fusion) की क्रिया न हो तो भ्रूण अविकसित रह जाता है। ऐसे बीज भ्रूणहीन होते हैं तथा प्राय: अजीव्य (nonviable) होते हैं।
भ्रूणपोष में मातृ एवं पितृ गुणसूत्र (maternal and paternal chromosomes) पाए जाते हैं तथा इनके हाइब्रिड विगर (hybrid vigour) के कारण ही ये क्रियात्मक आक्रमकता (physiological aggressiveness) दिखाते हैं।
निषेचन के बाद बीजाण्ड में बहुत-से परिवर्तन होते हैं। जाइगोट या ऊस्पोर वृद्धि करके भ्रूण (embryo) बनाता है तथा द्वितीयक केन्द्रक से भ्रूणपोष (endosperm) बनता है।