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#2 हिन्दी कथा साहित्य ( उपन्यास और कहानी ) व्याख्याएँ : ‘सुखदा’ B.A-1st year, Hindi-2

#2 हिन्दी कथा साहित्य ( उपन्यास और कहानी ) व्याख्याएँ : 'सुखदा' B.A-1st year, Hindi-2

(5) समझ में नहीं आता ———— काँप जाती हूँ।

प्रसंग – सुखदा के घर पर एक बालक गंगासिंह नौकर बनकर रहता था। बाद में पता चलता है कि वह क्रान्तिकारी था । सुखदा के कहने पर उसका पति अंग्रेजी के वे सारे समाचार – पत्र ले आया , जिनमें गंगासिंह की तस्वीर छपी थी। सुखदा ने वे सारी तस्वीरें तथा गंगासिंह से सम्बन्धित सारे विवरण काटकर रख लिए ।

वह इन सारी चीजों को धरोहर के रूप में संजोकर रखना चाहती थी , परन्तु जब उसे पता चला कि घर छोड़कर जाते समय गंगासिंह जो पत्र छोड़ गया था , उसे उसके स्वामी ने उसी दिन फाड़ दिया था तो वह कुण्ठित हो जाती है । उनके मन में अपने पति के लिए अपार घृणा का भाव पैदा हो जाता है और वह उसे भला – बुरा कह देती है । प्रस्तुत गद्यांश में वह इसी घटना पर विचार कर रही है ।

व्याख्या – सुखदा विचार करती हुई कहती है कि कितने आश्चर्य की बात है कि व्यक्ति के हदय में प्रेम , घृणा , उदात्तता और तुच्छता सब एक साथ समाए रहते हैं । यदि ऐसा नहीं होता तो वह अपने पति से , जिसके प्रति उसके मन में समय – समय पर प्रेम के भाव जाग्रत होते रहते थे , इस तरह से घृणा नहीं करती । उस दिन उसके हृदय में अपने पति के लिए जिस प्रकार को हिंसक भावनाएँ उत्पन्न हो गई थीं , आज शान्त मन से उनका विचार करते हुए भी सुखदा कांप जाती है।

(6) वह धागा किस ———— क्या विस्मय ।
अथवा वह धागा किस चली है।

प्रसंग – सुखदा जीवन के उत्स के रूप में ईश्वरीय सत्ता की ओर संकेत करती हुई उसको समझने की मानवीय चेष्टा का वर्णन इन पंक्तियों में कर रही है ।

व्याख्या – सुखदा जीवन – सूत्र के विषय में विचार कर रही है कि व्यक्ति का जो जीवन – सूत्र होता है , पता नहीं उसका निर्माण किन रेशों से होता है और उन रेशों को गूंथकर अर्थात् रुई की भाँति कातकर कौन उसे जीवन – सूत्र का आकार प्रदान करता है । यह संसार चरखे के समान सदैव गतिशील है और सम्भवतः उसकी यही गतिशीलता जीवन – सूत्र के निर्माण का निमित्त है , किन्तु इस चरखे का संचालनकर्ता कौन है इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता । मनुष्य सदैव से उस संचालनकर्ता के विषय में जानने और उसे खोजने का प्रयास करता रहा है , किन्तु उसके समस्त प्रयत्न विफल ही रहे हैं । वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सका है।

सुखदा कहती है कि हम जीवन – सूत्र और उसके निर्माणकर्ता को जानने के विषय में जो भी प्रयत्न करते हैं और उस सन्दर्भ में जो भी निष्कर्ष निकालते हैं वे उसी प्रकार अपूर्ण होते हैं जिस प्रकार समुद्रतट पर कौड़ियों को ढूंढकर उनसे खेल खेलनेवाले बच्चों का खेल कभी पूर्ण नहीं होता ; क्योंकि वे जैसे ही यह समझते है कि अब और कोई कौड़ी उन्हें नहीं मिलेगी , तभी कोई कौड़ी रेत से झाँकती दिखाई देती है तथा समाप्त होते खेल को फिर नई गति मिल जाती है । इस प्रकार वह खेल पूर्ण नहीं होता और निरन्तर चलता रहता है । सुखदा कहती है कि हम सभी जीवन – समुद्र के तट पर खेलते बच्चे ही है । सोचने विचारने के लिए हमें मस्तिष्क मिला है और अनुभूति के लिए हृदय । बच्चों का चंचल स्वभाव उन्हें शान्त नहीं बैठने देता।

विशेष रूप से बुद्धिमान् बच्चे तो कम ही शान्त बैठते हैं । इसी प्रकार हम ( परिपक्व हो चुके बच्चे ) भी कभी निष्क्रिय होकर नहीं बैठते ; क्योंकि हमारी बुद्धि और हृदय हमें उस विश्व – चक्र को घुमानेवाले के विषय में नए – नए दृष्टिकोण से सोचने के लिए विवश करते हैं । इस प्रकार जो परमसत्ता अगम – अगोचर है , जिसके विषय में कुछ जाना नहीं जा सकता , उसको जानने का प्रयत्न निरन्तर चलता रहता है । सुखदा आगे कहती है कि मैं जो आपको अपनी जीवन – कथा सुना रही हूँ , सम्भवत : उसमें उसी जीवन – सूत्र और उसके निमार्णकर्ता को ढूंढने का प्रयास ही आपको दृष्टिगत होगा ।

विशेष

  1. विश्व का संचालन कर्ता अगम – अगोचर है । हम अपने हृदय और बुद्धि के अनुभव एवं तर्कशक्ति के द्वारा उसके विषय में निरन्तर जानने का प्रयत्न करते रहते हैं।
  2. ईश्वर के सम्बन्ध में कोई भी निष्कर्ष अन्तिम नहीं हो सकता।
  3. भाषा साहित्यिक खड़ीबोली और शैली दार्शनिक है।

(7) मेरे मन में ———— खरे होते हैं।

प्रसंग – गंगा सिंह को लेकर सुखदा को न केवल अपने पति पर रोष था , वरन् देश के हर उस व्यक्ति पर रोष था जो गंगासिंह और उसके साथियों के विषय में नहीं सोच रहा था

जिम्मेदार लोग उनके विषय में किसी प्रकार की कोई अवधारणा ही नहीं बना पा रहे थे । इस वातावरण से सुखदा बड़ी खिन्न थी । इसी का वर्णन इस अवतरण में हुआ है ।

व्याख्या – सुखदा कहती है कि मेरे मन में यह बात निश्चित रूप से बैठ गई थी कि देश और समाज का उद्धार तभी हो सकता है , जब लोग इन युवाओं के क्रान्तिकारी विचारों और कार्यों का पूरी तरह समर्थन करेंगे । इसके बिना स्वतन्त्रता मिलना असम्भव है । जिन युवाओं पर देश को स्वतन्त्र करने का भूत सवार है और जो सर्वस्व त्याग कर देश के लिए लड़ रहे है , उन्हें इस प्रकार मरने के लिए अकेले नहीं छोड़ा जा सकता । देश के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह पूरी तरह सुरक्षा और सहायता प्रदान करके उन्हें अपना वैचारिक समर्थन भी प्रदान करे । मगर उस समय देश में सुखदा की सोच के विपरीत वातावरण था

अत : वह सोचती थी कि क्या भारत के लोगों में हृदय नहीं है , जो इतनी – सी बात नहीं समझते कि जो युवा देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा रहे हैं , ये लोग उन्हीं का विरोध कर रहे हैं । ये युवा वास्तव में भारत के बहुमूल्य रत्न है , ये भारत के नररूपी सिंह हैं । इनको तो प्रत्येक नागरिक को अपने सिर – माथे पर रखना चाहिए अथवा इनका पूर्ण सम्मान करना चाहिए । लोग हिंसा और अहिंसा के नाम पर इन युवाओं का विरोध करते हैं । मैं नहीं जानती कि वास्तव में हिंसा और अहिंसा क्या है , मैं तो बस इतना जानती हूँ कि भारत को स्वतन्त्रता केवल ये युवा ही दिला सकते हैं और एक दिन ये अपने लक्ष्य में अवश्य ही सफल होंगे । एक दिन वह अवश्य आएगा जब भारत का इतिहास इन्हें याद अवश्य करेगा कि इन्होंने देश के लिए क्या त्याग नहीं किया । तब लोग पाएँगे कि इन्होंने सर्वस्व त्यागकर भी मृत्यु को गले लगाया । जो लोग उनके विषय में ऐसी – वैसी बातें सोचते हैं अर्थात् उन्हें आतंकवादी , विध्वंसकारी अथवा हिंसक बताकर उनका विरोध कर रहे हैं , उन्हें अपने आप पर शर्म आनी चाहिए । अपने इन बच्चों को हम स्त्रियाँ जानती हैं ; हमसे पूछो कि ये क्या चाहते हैं और इनकी प्रकृति क्या है । मैं स्त्री हूँ , मुझसे पूछो ; मैं इन्हें भली प्रकार पहचानती हूँ कि ये हमारे असली हीरे हैं , इन्हीं से भारतमाता का शृंगार होगा ।

विशेष

  1. क्रान्तिकारी युवाओं के प्रति सुखदा के स्नेह की सफल अभिव्यक्ति हुई है , साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया है कि सुखदा देश की स्वतन्त्रता के लिए क्रान्ति को अनिवार्य मानती है।
  2. देश के तत्कालीन वातावरण और विचारधारा को भी स्पष्ट किया गया है।
  3. भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण खड़ीबोली और शैली वर्णनात्मक एवं विवेचनात्मक है।

(8) पति द्वार है ———— और जीवन अलग था।

प्रसंग – इस गद्यांश में अभिव्यक्त किया गया है कि किस प्रकार सुखदा का अपने गृहस्थ जीवन से अलगाव होता है और वह सार्वजनिक जीवन की ओर उन्मुख हो जाती है । वह अपने पति के साथ एक ही घर में रहती है , लेकिन निजी जीवन की संयुक्तता ने अब धारा को बदल दिया है और उसका विचार व जीवन दोनों ही उसके पति के विचार व जीवन से अलग हो गए हैं ।

व्याख्या – सुखदा कहती है कि पति के सम्बन्ध में उसका पूर्ववर्ती ज्ञान सतही था ; क्योकि वह बिना जाने उस ज्ञान को स्वीकार करती थी । सुखदा ने यह स्पष्टतः नहीं बताया है कि क्या जान लेने के बाद उसे अपना पूर्ववर्ती ज्ञान सतही लगता है , लेकिन वह इतना संकेत अवश्य करती है कि एक अनिर्दिष्ट शक्ति से वह अपने पति से स्वाधीन होती चली गई । सम्भवतः यह अनिर्दिष्ट शक्ति , देश की स्वतन्त्रता में हाथ बंटाने की उसकी इच्छा और सार्वजनिक जीवन के प्रति बढ़ता लगाव थी । उसके दैनिक जीवन में बाह्य रूप से देखने पर पति के साथ जीवन की संयुक्तता दिखाई पड़ती है , परन्तु भीतर – ही – भीतर यह संयुक्तता दो धाराओं में बँट गई थी । उसके व उसके पति के विचार और सामाजिक जीवन अलग हो गए थे ।

विशेष

  1. प्रस्तुत गद्यांश के द्वारा सुखदा का स्वच्छन्दता की ओर बढ़ता हुआ व्यक्तित्व प्रकट होता है ।
  2. भाषा में कोई विशेष चमत्कार नहीं है , लेकिन उसमें सरलता एवं प्रवाहमयता दृष्टिगोचर होती है । शैली विवेचनात्मक और यथार्थपरक है ।

(9) स्त्री को कुछ सुविधाएँ ———— नहीं हो पाते।

प्रसंग – हरीश सुखदा को दल की उपाध्यक्ष बनाना चाहता है और वह इससे इनकार करती है । वह सुखदा को इसके लिए प्रेरित करता है , जिससे सुखदा का इनकार क्षीण पड़ जाता है और उसे दल की सर्वसम्मत उपाध्यक्ष बना दिया जाता है । सुखदा स्वयं को सर्वसम्मत उपाध्यक्ष बनाए जाने की अपनी स्थिति का विश्लेषण कर रही है कि स्त्री होने के कारण ही ऐसा हो सका है ।

व्याख्या – सुखदा स्त्री होने की लाभ – हानि का विवेचन करती हुई सोचती है कि स्त्री होने के जहाँ अनेक लाभ हैं , वहीं अनेक हानियाँ भी हैं । स्त्री अपने स्त्री होने के कारण जहाँ अनेक सुविधाएँ अनायास ही पा जाती है , वहीं कुछ असुविधाएँ अर्थात् परेशानियाँ भी उसे उठानी पड़ती हैं । नामवरी और बदनामी अर्थात् यश – अपयश ऐसी ही सुविधा और असुविधा हैं । पुरुषों की अपेक्षा स्त्री शीघ्र ही नाम कमा लेती है ; क्योकि उसे अपने जीवन में विभिन्न प्रकार के प्रतिरोधों का सामना पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम करना पड़ता है । परिणामतः वह सरलता से सफलता के मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ती जाती है । स्त्री के लिए नाम कमाना जितना सरल है , उतना ही सरल उसका बदनाम होना भी है । सार्वजनिक जीवन में स्त्री शीघ्र प्रसिद्ध और प्रगति के पक्ष पर चल पड़ती है ; क्योंकि लोग उसे कम ही अस्वीकार करते हैं । स्त्री जब किसी नए क्षेत्र में कदम बढ़ाती है तो लोग उसके साहस और उत्साह की सराहना करते हुए उसे सहयोग करते हैं और साथ ही बहुत अधिक आदर की दृष्टि से देखते हैं , जिससे उसकी सफलता का मार्ग स्वयं ही प्रशस्त होता जाता है । स्त्री को प्राप्त ये सुविधाएँ ही आगे चलकर उसके लिए अभिशाप बन जाती है।

इसी कारण वह जीवन में कभी भी पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाती , क्योंकि वह अपने बलबूते पर सफलता प्राप्त करने की अभ्यस्त नहीं होती। वह तो अब तक जो सफलताएँ प्राप्त करती रही है, वे समाज के लोगों की उदारता , उसके अबलापन पर दिखाई गई दयालुता का परिणाम होती हैं। वह क्योंकि बिना संघर्षों और विरोधों के आगे बढ़ती आई है ; अत : उसमें संघर्ष करने की शक्ति विकसित ही नहीं हो पाती है और वह सफल होकर भी जीवनभर अबला ही बनी रहती है । उसके सम्पर्क में आने वाले लोग उसे अबला समझकर उसका सहयोग करते हैं और उनका वह सहयोग उसके पुरुषार्थ के प्रभाव का परिणाम नहीं होता । जो लोग अपने पुरुषार्थ के बल पर समाज का सहयोग प्राप्त करते हैं , उनके साथ समाज की भावनाएं जुड़ी होती हैं , वे उसे दिल से सहयोग करते हैं , किसी दया के कारण नहीं । ऐसे पुरुषार्थी लोगों के मन में रच – बस जाते हैं , उनके मध्य एक अटूट सम्बन्ध बन जाता है । उनके यही हार्दिक और अटूट सम्बन्ध उनके जीवन अर्थात् यश को स्थायित्व प्रदान करते हैं ।

विशेष

  1. स्त्रियों की सफलता में स्थायित्व नहीं होता , इसका सटीक विवेचन यहाँ किया गया है।
  2. भाषा – सरल , परिष्कृत और साहित्यिक खड़ीबोली और शैली विवेचनात्मक है।

(10) मुझे स्पष्ट था ———— जड़ की लेनी है।
अथवा मुझे स्पष्ट था ———— बाध्यता नहीं है।
अथवा कोमलता और उदारता ———— जड़ की लेनी है।

प्रसंग – सुखदा को मंच पर आकर सभा में भाषण देना है । उस समय उसके मानस में उभरते विचारों का प्रकटन यहाँ हुआ है ।

व्याख्या – सुखदा कहती है कि मैं यह बात भली – भाँति जानती हूँ कि भारत की उदात्त परम्पराएँ भारत के लिए अभिशाप बनकर प्रकट हुई हैं । भारत ने दुश्मन से कुछ भी नहीं सीखा । भारत ने दुश्मन को भी दोस्त के रूप में देखा और नुकसान उठाया । धर्म और अध्यात्म का स्वरूप प्रदान कर दुश्मन को माफ किया जाता रहा है । भारत की इस उदारता का दुश्मन ने पग-पग पर लाभ अर्जित किया है । अब हमें धोखा नहीं खाना है, अपितु अपने आचरण को कठोरता प्रदान करनी है। इसके लिए हमें किसी सुधार की आवश्यकता नहीं है , इसके लिए हमें क्रान्ति की आवश्यकता है । क्रान्ति ही हमारी विजय – यात्रा का मार्ग प्रशस्त करती है । यहाँ सुखदा सुधार के विषय में यह भी स्पष्ट करना नहीं भूलती है कि सुधार में कहीं-न-कहीं समझौता अवश्य करना पड़ता है, किन्तु उसमें सदैव ही उसको मानने की बाध्यता बिल्कुल नहीं होती है।

इसलिए समझौते से परिवर्तन की आशा नहीं की जा सकती । किसी समझौते से केवल मन को बहलाया जा सकता है कि चलो अमुक समस्या का समाधान हो गया । वास्तव में वह न समस्या का समाधान होता है और न उसके कारणों की समाप्ति का कोई प्रयास । यह तो कुछ इसी तरह होता है कि किसी पेड़ की बीमारी को दूर करने के लिए हम उसके एक – एक पत्ते की सुरक्षा और पोषण का रात – दिन प्रयत्न करें तथा उसकी जड़ पर कोई ध्यान न दें , जबकि पेड़ को स्वस्थ रखने के लिए हमें उसके पत्तों का नहीं , बल्कि जड़ का पोषण करना होगा । इसी प्रकार हमें किसी समस्या के समाधान के लिए उसके मुख्य कारण को खोजकर उसी पर आघात करना होगा , तभी हमें अपने प्रयासों में सफलता मिल पाएगी ।

विशेष

  1. यहाँ क्रान्ति की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
  2. यहाँ प्रकट किया गया है कि जीवन में कभी – कभी कठोरता भी आवश्यक होती है।
  3. भाषा साहित्यिक खड़ीबोली तथा वर्णनात्मक शैली द्वारा क्रान्ति का उद्घोष किया गया है।

(11) हम स्त्रियों की ———— पुनर्जन्य है।
अथवा हम स्त्रियों की ———— लुट गई है।

प्रसंग – प्रस्तुत गद्यांश में अस्पताल में पड़ी हुई सुखदा अपने अतीत की उस घटना के बारे में चिन्तन कर रही है , जब उसके पति ने बैंक में रखे उसके गहनों पर दो हजार रुपये लेकर हरीश के पास भिजवा दिए थे । बाद में उसने कहा था कि एक जगह उसने दो घण्टे का काम देख लिया है और दो साल में उसके दो हजार रुपये पूरे हो जाएंगे । इस बात पर सुखदा की उससे तकरार हुई थी और उसका पति सिर झुकाकर चिन्तित मुद्रा में पराजित भाव से घर में घूमने लगा था ।

व्याख्या -सुखदा आत्म – सन्ताप करती हुई सोच रही है कि स्त्री ही पुरुष को झुकाती है । और उसके झुकने का दोष भी उसी पर मढ़ देती है । सुखदा सोचती है कि वह चाहती थी कि उसका पति अवसर आने पर उससे रुष्ट हो , उससे रोष व्यक्त करे , प्रताड़ित करे ; परन्तु उसका पति हर अवसर पर विनम्रता का चोला धारण कर लेता है । पहले सुखदा को लगता था कि विनम्रता दुर्बलता है , परन्तु अब वह जाग गई है कि विनम्रता में एक बहुत बड़ा बल छिपा होता है , लेकिन अब तो हाथ में कुछ भी नहीं बचा है । पति के प्रति करुणा का भाव सुखदा के हृदय में भर आया है , तपेदिक से पीड़ित सुखदा मृत्यु के करीब है , वह सोचती है कि पति की विनम्रता का महत्त्व वह इस जीवन में नहीं समझ सकती , लेकिन पुनर्जन्म के रूप में आशा का द्वार अभी भी खुला हुआ है । वह अपनी गलती तो पुनर्जन्म में ठीक कर सकती है ।

विशेष

  1. सुखदा के आन्तरिक द्वन्द्व का सफल चित्रण किया गया है ।
  2. पति के प्रति उत्पन्न करुणा का भाव सुखदा के हृदय का वास्तविक भाव प्रतीत होता है ।
  3. सुखदा को पुनर्जन्म के प्रति आस्थावान् दिखाया है ।
  4. भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है और शैली विवेचनात्मक एवं विचारात्मक है ।
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